Tuesday, January 21, 2014

रामेश्वर डूडी के मायने

राजस्थान विधानसभा में कांग्रेस ने अपने विधायक दल का नेता रामेश्वर डूडी को बनाया है। विधानसभाई व्यवस्थाओं के अनुसार वे नेता प्रतिपक्ष भी होंगे और उन्हें वे सभी सुविधाएं हासिल होंगी जो किसी कैबिनेट मंत्री को हासिल होती हैं। कहा जा रहा है कि कांग्रेस यदि उन्नीस विधायकों पर सिमट जाती तो नियम के तहत वह इस हक से वंचित हो जाती।
बीकानेर जिले के किसी विधायक को यह जिम्मेदारी दिए जाने से यहां की कांग्रेस में कुछ फड़फड़ाहट लौटती दिखी है। अन्यथा पिछले चुनावों में बुरी हार के बाद गोपाल गहलोत ने पार्टी में हरारत पैदा करने के लिए एक आयोजन जरूर किया था--अपने को दिग्गज मान चुके बीडी कल्ला और वीरेन्द्र बेनीवाल सहित शेष सभी जैसे बर्फ में लगा दिए गये हों। नेता प्रतिपक्ष जैसी जिम्मेदारी और प्रदेश स्तरीय नेता होने का अवसर 2003 में बीकानेर के ही डॉ बीडी कल्ला को भी मिला था लेकिन अपनी अफसराना हेकड़ी के चलते वे केवल खुद 2008 का चुनाव हार गये बल्कि इस दौरान उन्होंने प्रदेश की राजनीति में अपना माजना भी दे दिया जिसके चलते वे उतने भी नहीं रह पाए जितने पहले थे। सबकुछ करने-धरने के बावजूद 2013 का यह चुनाव हार गये। डॉ बीडी कल्ला तैंतीस साल से राजनीति कर रहे हैं लेकिन लगता है सबक और सीख का अध्याय उनकी राजनीतिक पोथी में है ही नहीं।
कल्ला से ठीक विपरीत सबक और सीख की कूवत रामेश्वर डूडी में देखी गई है। 1984-85 में पारिवारिक विरासत के चलते उन्होंने जब भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन के माध्यम से राजनीति शुरू की तब उनके व्यवहार में बचकानापन और हेकड़ी अपने पिता की सार्वजनिक छवि के एकदम उलट थी। उनका यही स्वभाव वर्षों तब तक कायम रहा जब तक उन्होंनेउड़ती-उड़ती ही देखीयानी पिता की कमाई से 1995 में प्रधानी हासिल कर ली और इस प्रधानी और युवा जाट होने के बूते उन्होंने 1999 में केवल बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस की उम्मीदवारी पा गये, बल्कि अच्छे-खासे जीत भी गये। डूडी नेफंसती’ 2004 में पहली बार देखी जब वे भाजपाई उम्मीदवार सिने अभिनेता धर्मेन्द्र से लोकसभा चुनाव हार गये। डूडी ने इसेफंसतीदेखना इसलिए नहीं माना चूंकि धर्मेन्द्र जैसे के सामने जीतना मुश्किल मान लिया गया था और 55-56 हजार वोटों से हार लोकसभा चुनावों में धर्मेन्द्र के सामने बड़ी नहीं मानी गई। डूडी के स्वभाव का अक्खड़पन जारी रहा। असली सबक कहें याफंसतीका दीदार होना, डूडी ने यह असल पाठ  2008 में तब पढ़ा  जब वे अपने धुर इलाकाई विरोधी निर्दलीय खड़े कन्हैयालाल झंवर से विधायक का चुनाव हार गये। इस चुनाव के बाद मानो डूडी ने बालिग होने की ठान ली और इस उम्र में आई इस परिपक्वता का लाभ भी उन्हें मिला। कांग्रेस के लिए सबसे बुरे चुनाव में केवल वे खुद जीते बल्कि एक तरह से डूडी की राजनीतिक शागिर्दी स्वीकार कर चुके भंवरसिंह भाटी को उन देवीसिंह भाटी के सामने जितवा भी लाए जो क्षेत्र को अपनी बपौती मानने और उसी तरह व्यवहार करने लगे थे। रेंवतराम और गोविन्दराम मेघवाल से सम्बन्ध सुधार कर अपने में आई परिपक्वता की बानगी दी और अपनी सकारात्मकताओं के चलते इतना आत्मविश्वास हासिल कर लिया कि पिछले विधानसभा चुनावों में खुद बीड़ में घिरे होते हुए भी पार्टी के लिए कोलायत के साथ-साथ बीकानेर (पश्चिम) और खाजूवाला में समय दिया। जबकि अवसर देखते ही मुख्यमंत्री पद के लिए मुंह धोने वाले डॉ बीडी कल्ला चुनावों में अपने अलावा पार्टी के किसी अन्य उम्मीदवार के लिए कुछ करने की नीयत कभी बपरा नहीं पाए।
अगले पांच सालों में कांग्रेस किस स्थिति में होगी, कुछ कहा जाना जल्दबाजी होगी लेकिन परिपक्व डूडी पर यह दारोमदार है कि अपने से ज्यादा सुलझे, ज्यादा चतुर और ज्यादा युवा प्रदेश पार्टी अध्यक्ष सचिन पायलट को साफ-सुथरी और दक्ष संगत देकर प्रदेश में फिजा को पार्टी के पक्ष कितना करा सकते हैं। यह काम इन दोनों को प्रदेश के अन्य सहयोगियों के साथ अपने तौर पर ही करना है, केन्द्रीय नेता और केन्द्र की इनकी सरकार ने अपनी साख पूरी तरह फिलहाल बट्टे खाते दर्ज करवा रखी है। अच्छी राजनीति उसे ही कहा जाता है जिसमें बजाय अपने को स्थापित करने की हड़बड़ी दिखाने के प्लेटफार्म को मजबूत किया जाता है। प्लेटफार्म ही नहीं रहेगा तो आप खड़े कहां रहेंगे? राजनीति का यही फर्क अशोक गहलोत और बीडी कल्ला में स्पष्ट देखा जा सकता है और सचिन जैसे स्थापित नेता के बरअक्स डूडी भविष्य के नेता के रूप में अपने को स्थापित कर सकते हैं, ऐसी कूवत उनमें गई है।

21 जनवरी, 2014

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