प्रदेश की नई सरकार के लिए एक दिसम्बर को हुए मतदान के आश्चर्यजनक परिणाम कल आ गये हैं। आश्चर्यजनक दो कारणों से कहा, एक तो ऐसे परिणामों की उम्मीद ना भाजपा को थी और ना ही ऐसी आशंका कांग्रेस को रही। ओपिनियन, एक्जिट पोल भी धरे रह गये। दूसरा बड़ा कारण यह कि आजादी बाद के इतिहास में कांग्रेस विरोध की तीव्र चुनावी अभिव्यक्ति 1977 में देखी गई तब लोकसभा के चुनावों के बाद राज्य में हुए चुनावों में भी जनता पार्टी 200 में से 152 सीटें ही ले पाईं और कांग्रेस इन चुनाव परिणामों में तब के 41 सीटों के उस न्यूनतम आंकड़े जैसे गर्त में कभी नहीं गई। इस चुनाव में भाजपा ने 200 में से 162 सीटें जीत कर रिकार्ड बना लिया और लगता है चूरू में 13 दिसम्बर को होने वाले मतदान के परिणाम भी भाजपा के पक्ष में जाएंगे। कांग्रेस मात्र 21 सीटों पर सिमट कर रह गई।
देश की दोनों मुख्य पार्टियों की चाल और चरित्र एक-सा है, बल्कि भाजपा पर तो साम्प्रदायिकता का लेबल भी चस्पा है। बावजूद इसके अन्य विकल्प ना होने की स्थिति में जनता बजाय कांग्रेस के भाजपा को चुन रही है, जहां-जहां कोई तीसरा विकल्प जनता को दिखता है वहां-वहां वह अभी भी इन दोनों पार्टियों को नकारती है, हाल ही के चुनावों में ‘आम आदमी पार्टी’ का उदाहरण दिया जा सकता है तो विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का प्रभावी होना इसी बात का प्रमाण है।
हाल ही के चार विधानसभा चुनावों के परिणामों को देखें तो दिल्ली में जहां तीसरे विकल्प के रूप में उभरी आम आदमी पार्टी को छोड़ दें तो शेष तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मतदाताओं ने कांग्रेस को सिरे से नकार दिया है। प्रदेशीय एंटी इन्कम्बैंसी
प्रभावी होती तो छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के नतीजे दूसरे होते। वहां भाजपा की सरकारें होने के बावजूद जनता ने उसी पार्टी और उन्हीं मुख्यमंत्रियों को लगातार तीसरी बार मौका दिया।
परिणामों की पड़ताल करें तो लगता है प्रदेशीय मुद्दे और एंटी इन्कम्बैंसी
या तो थी नहीं और थी तो ज्यादा प्रभावी नहीं थी। दरअसल केन्द्र की कांग्रेसनीत संप्रग सरकार की साख लगभग दिवालिया हो चुकी है। संप्रग-दो के काल में लगातार घोटालों का उजागर होना, प्राकृतिक, अप्रत्याशित
और स्थानीय बाजार की करतूतों से रोजमर्रा उपयोग की जिन्सों का महंगा होना, वैश्विक बाजार व्यवस्था के दबाव में रसोई गैस सहित पैट्रोलियम उत्पाद की दरों के नियन्त्रण को खुला छोड़ना और डॉलर के मुकाबले रुपये पर नियन्त्रण नहीं बना पाने से देश का आमजन केन्द्र की इस सरकार से भारी रोष में है।
इन छियासठ वर्षों में देश में बहुत कुछ बदला है, समाजवाद का सपना टूटने और बाजार पर अन्तरराष्ट्रीय
दबाव के बाद देश पूरी तरह बाजार के हवाले है और बाजार की आक्सीजन ‘पॉम्प एण्ड शो’ (धूमधड़ाका व दिखावा) हो गया है। जीवन की सभी क्रियाएं जब बाजार से संचालित होने लगी हैं तो राजनीति भी इससे अछूती कैसे रह सकती है।
कोढ़ में खाज का काम प्रधानमंत्री
मनमोहनसिंह की मौनी अवस्था और संप्रग की चेयरपर्सन सोनिया की अस्वस्थता के चलते निष्क्रियता
ने किया। राहुल जिन्हें उत्तराधिकारी बनाया गया वह लगभग अयोग्य साबित हो रहे हैं। जनता को सभी मुद्दों पर मनमोहन की चुप्पी बर्दाश्त से बाहर हो गई। मनमोहन की दिखावे और धूम धड़ाके में रुचि ना होना और राजनेता के जरूरी गुण ‘प्रदर्शन कला’ का नितान्त अभाव कांग्रेस को लगातार नुकसान पहुंचा रहा है। पिछले वर्ष की शुरुआत में उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, मणिपुर और गोवा के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन का उल्लेख करते हुए विनायक के 7 मार्च, 2012 के सम्पादकीय का यह अंश आज भी प्रासंगिक है--
इस कांग्रेस
की पिछले बीस-पचीस सालों में जो स्थितियां बनी है वह विचारणीय
तो थी ही इन चुनावी नतीजों
के बाद तो चिन्ताजन्य भी हो गई हैं। ऐसे समय में किसी
भी पार्टी में युवाओं से उम्मीदें
बढ़ जाती हैं लेकिन कांग्रेस में घोषित युवा प्रतीक
राहुल गांधी में कोई परिपक्वता परिलक्षित
नहीं हो रही है। अन्य कोई योग्य युवा शायद
इसलिए मुखर नहीं
हो रहे हैं कि कहीं इसे उनका राहुल पर ओवरटेक नहीं मान लिया जाय।
विनायक,
7 मार्च, 2012
राहुल और मनमोहन का कमजोर प्रदर्शन और प्रमुख विपक्षी दल भाजपा द्वारा प्रदर्शनप्रेमी
नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री
पद का प्रत्याशी घोषित करना और मोदी द्वारा राजस्थान में बड़ी चतुराई से चुनाव को गहलोत बनाम वसुन्धरा की बजाय मोदी बनाम केन्द्र सरकार बना देना गहलोत की छवि पर भारी पड़ा और राजस्थान में उनका किया धरा सब धुल गया। रही सही कसर राहुल और मनमोहन की असफल रैलियों ने पूरी कर दी।
कहा जा सकता है कि फिर गहलोत ने क्या किया? गहलोत ने जो कुछ भी किया और करते रहे हैं उनका असर ना रहने की आशंकाएं विनायक ने साल भर पहले प्रकट कर दी थी। पाठकों के पुनरावलोकन के लिए ‘विनायक’ अपने दो सम्पादकीयों के अंश यहां पुनः प्रकाशित कर रहा है।
देशव्यापी कांग्रेस विरोधी माहौल को भुनाने की क्षमता राजस्थान में केवल वसुन्धरा के पास है। और यह आकलन लगभग सही भी है, तभी वसुन्धरा राजनाथसिंह से लेकर नितिन गडकरी तक किसी को भाव नहीं देती, अरुण चतुर्वेदी जैसे तो उनकी गिनती में आते ही नहीं हैं। अशोक गहलोत अपनी इस दूसरी पारी की शुरुआत से ही सिर्फ रक्षात्मक मुद्रा में ही देखे गये हैं, या कहें छाछ को भी फूंक-फूंक कर पी रहे हैं यद्यपि गहलोत का राज ज्यादा मानवीय, लोकतान्त्रिक है और यह भी कि लोककल्याणकारी योजनाएं लाने वाले राज्यों में राजस्थान हाल-फिलहाल अग्रणी है।
पर इस सबके बावजूद माहौल यह नहीं कह रहा है कि राजस्थान की जनता अगले चुनावों मेंं गहलोत को फिर मौका देगी, जबकि प्रमुख विरोधी दल भाजपा में आज भी यह शत-प्रतिशत निश्चिंतता नहीं है कि कमान वसुन्धरा ही सम्भालेंगी। वसुन्धरा राजनीति को जहां केवल हेकड़ी से साधती हैं वहीं गहलोत इस मामले में राजस्थान के अब तक के सबसे शातिर राजनीतिज्ञ के रूप में स्थापित हो चुके हैं। वे राजनीति को चतुराई से साध तो लेते हैं, लेकिन उनके पास जनता को लुभाने के वसुन्धरा के जैसे न लटके-झटके हैं और न इस नौकरशाही से काम लेने की साम-दाम-दण्ड-भेद की कुव्वत। वसुन्धरा राज में खर्च किया एक-एक रुपया भी वसुन्धरा के गुणगान के साथ खनका है, गहलोत के उससे कई गुना खर्च की खनक खोटे सिक्के की सी आवाज भी पैदा नहीं कर पा रही है। इसके लिए जिम्मेदार कांग्रेसी हैं, जो सभी धाए-धापे से रहते हैं, इनके ठीक विपरीत भाजपाई कार्यकर्ता चुनाव आते और चामत्कारिक नेतृत्व मिलते ही पूरे जोश-खरोश के साथ छींके तक पहुंचने की जुगत में लग जाते हैं।
गहलोत का मीडिया मैनेजमेंट भी बेहद कमजोर रहा है। वे अपने ‘भोंपू अखबारों’ को पोखते हैं और उनमें छपे गुणगानों से संतुष्ट हो लेते हैं, लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि जो अखबार या टीवी घोषित ‘गहलोती भोंपू’ हो चुके हैं उनका असर कितना होगा? मिशन से शत-प्रतिशत व्यापार बन चुके इस मीडिया को साधना अब नामुमकिन तो क्या मुश्किल भी नहीं है। आजकल का अधिकांश मीडिया अपनी हेकड़ी चलनी में लिए घूमता है और इस चलनी के नीचे हथेली राज की है!
दूसरी बात यह भी देखी गई है कि गहलोत अपने प्रशासनिक अमले पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर रहे हैं। प्रबन्धकीय आयाम से तो यह अच्छी बात होती है लेकिन राज चलाना है तो देखना यह भी होता है कि इस तरह का भरोसा करने जैसा यह प्रशासनिक अमला है क्या, क्योंकि शासन आपको इन्हीं के माध्यम चलाना है। कुछेक भरोसे के अधिकारियों को छोड़ दें तो सभी अपने-अपने तरीके और बल पड़ते जाली-झरोेखे से प्रशासन चला रहे हैं। उनमें से अधिकांश में इस बात की चेष्टा कहीं नहीं दीख रही कि राज की साख भी बने। वसुन्धरा के समय ऐसा नहीं था, वह जब चाहे तब लगाम खींच कर इन अफसरों को जांचती और चौकस रखती थीं।
प्रशासनिक
अमले पर गहलोत के इसी अति भरोसे के चलते उनकी सभी फ्लैगशिप योजनाएं बेरंगत हैं। और रंगत नहीं आयेगी तो अगले चुनावों के बाद राज भी नहीं रहेगा, जमाना दिखावे का है, केवल अच्छी मंशा से काम करना ही पर्याप्त नहीं है, उसका क्रियान्वयन होते दीखना भी जरूरी है।
विनायक,
4 अक्टूबर, 2012
बिना आग्रह और दुराग्रह
के गहलोत के दोनों कार्यकालों की तुलना करें तो उनका पिछला कार्यकाल
ज्यादा बेहतर था, तब कुछ बड़े और सही निर्णय
उन्होंने लिए थे। इस कार्यकाल को देखें तो पहले
साल से ही गहलोत की टकटकी 2014 के विधानसभा चुनावों
पर रही कि उन्हें इस आगामी
चुनाव को न केवल जीतना है बल्कि अपने बूते
सरकार भी बनानी
है। कोई बड़ा निर्णय नहीं लिया, सिवाय लोक लुभावन
योजनाओं के। जबकि
ढुलमुल सरकारी तंत्र
के चलते इन सभी योजनाओं का लाभ राजीव गांधी
के कहे अनुसार
आमजन तक पहुंच
पन्द्रह प्रतिशत ही रहा है। सरकारी
तंत्र को कसने
की ‘हिमाकत’ गहलोत ने जो अपने
पिछले कार्यकाल में की थी वैसे
तेवरों की छाया
तक उन्होंने अपने
इस कार्यकाल पर नहीं पड़ने दी। एक साल बचा है, देखते-देखते यह भी निकल जायेगा,
मानो उलटी गिनती
शुरू हो गई है, फिर से ट्रेक पर आना होगा।
विनायक, 13 दिसम्बर, 2012
कांग्रेस जो अब भी नहीं चेती और अपने नेतृत्व, चाल-चलन और क्रिया-कलापों में आमूल परिवर्तन नहीं लाती है तो अगले लोकसभा चुनावों के बाद मोदी चाहे खुद प्रधानमंत्री
बन पाये या नहीं ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के अपने नारे को आंशिक सफल होता जरूर देख लेंगे।
9 दिसम्बर, 2013
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