बात 1984 के लोकसभा चुनाव की है। बीकानेर क्षेत्र से खड़े कुल 18 उम्मीदवारों
में तीन दिग्गज थे--कांग्रेस से मनफूल सिंह, जनता पार्टी के प्रो. केदार और लोकदल के कुम्भाराम आर्य दौड़ में सरोज सेन के बूते भारतीय जनता पार्टी भी थी। पर कुल जमा 11,710 वोट लेकर वे जमानत भी नहीं बचा पाए। शहरी कस्बाई क्षेत्रों में प्रो. केदार की छवि का दबदबा और इस जाट बहुल क्षेत्र में मनफूल-कुम्भाराम में जाटों के फंटवाड़े से लगने लगा था कि प्रो. केदार मीर मार लेंगे। स्थानीय मोहता चौक में कुम्भाराम की आमसभा थी। शहर प्रो. केदार के रंग में रंगा हुआ था, सभा को जमने नहीं दिया जा रहा था। घाघ कुम्भाराम की समझ में आने तो लग ही गया था कि इस तरह ना मैं जीतूंगा और ना ही मनफूल और जै पंडित केदार जीत गया तो क्षेत्र की राजनीति से जाटों का कब्जा खत्म हो जावेगा। रहे-सहे उसके मानस की पूर्ति उस ब्राह्मण प्रभावी माहौल में उखड़ी उस रात की सभा ने पूरी कर दी। कुम्भाराम जैसे-तैसे बोलने खड़े हुए तो हाके चरम पर आ गये। प्रभावी वक्ता माने-जाने वाले कुम्भाराम का उस दिन का भाषण इतना ही था, ‘पंडितां थै हाका भलै किताई ही कर लौ, मेरी एक बात गांठ बांधल्यौ, बीकानेर से जितैगौ जाट को बेटो ही।’ कुम्भाराम ने अपने समुदाय की साख बचाने को अपनी साख दावं पर लगा दी। चूंकि अपने प्रभावक वोटरों में इस बदली अपनी मंशा को ठीक तरह नहीं पहुंचा पाए सो 60,261 वोट उन्हें फिर भी मिल गये। 2,80,090 वोट लेकर जीते मनफूल ही। जबरदस्त माहौल के बावजूद प्रो. केदार 1,54,008
पर ही अटक गये।
जातीय जंतर की एक और भी घटना 1990 के विधानसभा चुनावों की है। बीकानेर शहर क्षेत्र से कांग्रेस सरकार में मंत्री और क्षेत्र के विधायक डॉ बीडी कल्ला मैदान में थे तो जनता दल से दावेदार मक्खन जोशी की जगह टिकट ले आए मानिकचन्द सुराना। चौधरी देवीलाल की चौधराहट परवान पर थी सो अपने रिश्तेदार मनीराम को लूणकरनसर से लड़वाने के लिए मक्खन जोशी के दावे को दरकिनार कर सुराना को बीकानेर शहर में ठेल दिया। 1985 से 1990 तक का डॉ. कल्ला का मंत्री काल सबसे बदनामी का रहा, ‘भाईजी री पर्ची’ इसी कार्यकाल में कुख्यात हुई थी। कहें कि पूरा चुनाव कल्ला बन्धु विरोधी माहौल से सराबोर था। 49 उम्मीदवारों
की भारी भरकम फेहरिस्त में भाजपा के ओम आचार्य भी मैदान में थे शहर में प्रभाव ओम आचार्य का भी कम नहीं था कल्ला-बन्धु का भारी विरोध और आचार्य के मैदान में होेने से प्रभावी पुष्करणा समाज के वोटों के फंटवाड़े की संभावना से माहौल ऐसा बनने लगा कि मानिक सुराना तो जीत ही जाएंगे। तब तक टीएन शेषन की टेंशन यानी चुनाव आयोग की शक्तियां चेतन नहीं हुई थी, चुनाव प्रचार के आखिरी दिन प्रभावी उम्मीदवार अपने जुलूस निकाला करते थे। मानिक सुराना का जुलूस भी रतन बिहारी पार्क से जबरदस्त उत्साह के साथ शुरू हुआ। कोटगेट, नया कुआ, बाजार होते हुए जुलूस जब मोहता चौक से गुजर रहा था तो चौक के पाटों पर हमेशा की तरह पुष्करणा समाज के कुछ बुजुर्ग बैठे थे। उन्होंने कल्ला विरोधी कुछ नारों पर आपत्ति की और जुलूस में शामिल कुछ बोछर्डे सम्मानजनक तरीके से पेश नहीं आए। मानिक सुराना चूंकि ओसवाल समाज से आते हैं सो उस जुलूस में अधिकांश ओसवाल समाज को पहली बार ऐसे ‘हाव’ में देखा गया। कहा जाता है ऐसे ‘हाव’ के भी कुछ ‘नकारात्मक’ सन्देश लिए गए। ऐसे ही कारणों से एक दिन में बदले माहौल में पुष्करणों में ‘सवर्ण समुदाय’ के भाजपा के भारी भरकम ओम आचार्य चिगदीज गये। पूरी निष्ठा से सुराना के साथ लगे मक्खन जोशी को उनके ही समाज ने अनसुना कर दिया और पुरजोर बदनामी के बावजूद बीडी कल्ला फिर जीत गये!
7 दिसम्बर, 2013
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