‘न्याय एक परिकल्पित
शब्द है,
आप धन,
सत्ता, बाहुबल
और भविष्य में उपकृत करने के हथकंडों से इसका
आखेट कर सकते
हैं। न्याय के लिए पटाखे फोड़ना
भी, न्याय
के परिकल्पित होने
की पुष्टि करता
है। न्याय की चाह में पीढ़ियां
खप गईं,
बस कभी-कभी इसकी खुरचन
बिखेर दी जाती
हैं जिससे आप उस पर अविश्वास न करें।’
-सुभाषचन्द्र कुशवाहा (लेखक)
(फेसबुक पर आज सुबह 9.00 बजे का स्टेटस)
वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के मामले में नरेन्द्र मोदी को लेकर कल आए अदालती फैसले के संदर्भ में एक शब्द ‘क्लीनचिट’ समान रूप से अधिकांश अखबारों की आज हेडलाइन बना है। लोक में इसके लिए अरबी का एक प्रचलित शब्द है ‘बरी’ होना। अंग्रेजी प्रभाव से इस बरी शब्द के लिए ‘क्लीनचिट’ काम में लिया जाने लगा। हालांकि, ऐसा कुछ नहीं होता कि फैसला देने वाला कोई प्रतीक रूप में सादा कागज पकड़ाता हो, कई शब्द अपने संस्कार से रूढ़ अर्थ अपना लेते हैं। संभवतः ‘क्लीनचिट’ ने भी इसी तरह अपना विशेष अर्थ आत्मसात कर लिया हो!
‘क्लीनचिट’ शब्द आरोपविशेष से औपचारिक रूप से मुक्त होने पर सामान्यतः काम लिया जाता है। लेकिन कोई दोषी सचमुच मुक्त हो सकता है कभी? किसी आरोपी को निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत बरी करती चली जाती है। इसके बावजूद माना यही जाता है कि वह लोकचित्त के आरोपों से कभी भी मुक्त नहीं होता। देश-दुनिया के सन्दर्भ में बात करें तो ऐसे लाखों उदाहरण सूचीबद्ध किए जा सकते हैं। देश-दुनिया की छोड़ दें तो अपने बीकानेर जिले के पिछले सौ वर्षों के ऐसे ‘क्लीनचिट’ हासिल लोगों की सूची बनाएं तो सैकड़ों होंगे जिन्हें अदालतों ने तो बरी कर दिया लेकिन जानने-समझने वाले या तटस्थ भी उन्हें मन में दोषी मानते हैं।
खुद लोक में उसके लिए एक जुमला और भी चलता है कि लोक की स्मृति कमजोर होती है, वह जल्द ही इस तरह की बातें भूल जाता है। ये कैबत भी इसलिए है कि वह भूलता नहीं अकसर नजरअन्दाज जरूर कर देता है। सामान्यतः देखा-जाना गया है कि इस नजर-अंदाजी की विशेष सुविधा समाज के उसी तबके को हासिल होती है जिनका जिक्र मित्र सुभाषचन्द्र कुशवाहा ने आज की अपनी पोस्ट में किया--धनी, शासक, बाहुबली और भविष्य में उपकृत करने का प्रलोभन देने की चतुराई बरतने की क्षमता रखने वाले लोग येन-केन या साम, दाम दण्ड भेद जैसी किसी जुगत से न केवल औपचारिक रूप से अपराध मुक्त हो लेते हैं बल्कि उक्त में से अपनी किसी प्रभावशाली स्थिति का उपयोग करके पुनः वैसा कुकृत्य करने का दुस्साहस भी हासिल कर लेते हैं।
इन सभी परिस्थितियों
में हारती है इंसानियत। जो पीड़ित होता है उसे अपने मनुष्य होने से ग्लानि होने लगती है। इस तरह धन, सत्ता, बाहुबल आदि की जैसे-जैसे प्रतिष्ठा बढ़ेगी वैसे-वैसे इंसानियत कमजोर होती जायेगी और इंसानियत यदि दुर्बल हो जायेगी तो हम सब क्या कहलाएंगे? जानवर कहना तो उनके प्रति भी अन्याय ही होगा क्योंकि वे अपनी प्रकृति के मामले में मनुष्य से ज्यादा दृढ़ पाये जाते हैं। जबकि मनुष्य को अपनी प्रकृति से रोज विचलित होते देखा जा सकता है। वह विचलन अन्ततः उसे नये नाम से नवाजेगा। वह नाम ‘क्लीनचिट’ या ‘बरी’ या ‘निर्दोष’ शब्द की तरह किसी भाषाई शब्दकोश में नहीं मिलेगा। गर्त में गिरे मनुष्यों को अपने लिए उस नये शब्द को घड़ना ही होगा।
27 दिसम्बर, 2013
No comments:
Post a Comment