समाज के सभी वर्गों, समुदायों और जातियों में ऊंचा-नीचा मानने का भाव है, वहीं समकक्षों में अपने को उच्च मानने की सनक भी कम प्रचलित नहीं है। अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण के बावजूद इसी समूह की विभिन्न जातियों में ऊंच-नीच का क्रम बहुत दृढ़ता से निभाया जाता है। आरक्षण से लाभान्वितों
में उच्चता का दम्भ दिखने लगा है। इसीलिए राज में प्रभावी अनुसूचित उच्च जातियां अपने हितों को ध्यान में रखते हुए मलाईदार परिवारों (क्रीमीलेयर) को आरक्षण से बाहर करने का विरोध करते और सफल होते रहे हैं। अन्यथा आजादी बाद के इन छियासठ वर्षों में काफी कुछ सामाजिक समानता देखी जा सकती थी। यदि ऐसा होता तो तथाकथित उच्च वर्गों में इस आरक्षण के खिलाफ असन्तोष भी कम होता।
इसी तरह की स्थितियां अन्य पिछड़ा वर्ग में है। इस में भी विभिन्न जातियां अपने को एक-दूसरे से ही और श्रेष्ठ मानती हैं। परम्परागत रूप से सोनारी, सुथारी और बाग-बाड़ी का काम करने वाले इन समूहों में मोटा-मोट दो बड़े फंटवाड़ देखने को मिलते हैं। जांगिड़-ब्राह्मण सुथार, मेढ़-ब्राह्मण सुनार और क्षत्रिय-फूलमाली में अलग-अलग अहम् पोखे जाते रहे हैं। इसके अलावा अन्य पिछड़ी जातियां जो विभिन्न कारणों से इनसे भी पिछड़ी हैं, उनकी अभिव्यक्तियां इनकी तरह से सार्वजनिक नहीं हो पाती है। सोनार-सुथारी का काम करने वाले दोनों समूहों में जहां रिश्ते-नातों के सम्बन्ध सामाजिक तौर पर अभी नहीं होने लगे हैं। इसलिए इनकी सामाजिक और राजनीतिक प्रतिक्रियाएं भी अलग-अलग देखी जा सकती हैं। वहीं परम्परागत रूप से बाग-बाड़ी का काम करने वाले जातिसमूह मालियों में क्षत्रिय माली और फूलमाली आपस में गड्ड-मड्ड होते देखे जाने लगे हैं और इसीलिए इनकी सामाजिक-राजनीतिक प्रतिक्रियाएं
भी रेखा के आर-पार की नहीं देखी जाती है। वणिक समुदायों की उपजातियों में जहां सामन्तों-रजवाड़ों में मिली मान्यता का उच्च भाव मिलता है, पर वहां भी महात्मा उपजाति के साथ कोई बहुत सम्मान का भाव कम देखा जाता है। ऐसी-सी स्थिति राजपूत समाज की भी है। इनमें ऊंच-नीच या असली होने का अहम् कुछ ज्यादा ही देखा जा सकता है। शासक परिवार के राजपूत जहां खुद को असल और शेष को सम्मान से दरोगा और तिरस्कार में गोला आदि कह कर सम्बोधित किया जाता है। पर आश्चर्य है कि जिन्हें समकक्ष नहीं माना जाता रहा है वे अपनी सामाजिक-राजनीतिक प्रतिक्रियाएं सामान्यत: ठिकानेदार रहे राजपूतों के अनुसार व्यक्त करते रहे हैं। संभवत: ऐसा इसलिए होता है ताकि उच्च समूह से जुड़ाव का आभास हो।
ब्राह्मणों के विभिन्न समूह अपने-अपने को उच्च बताते हैं और उनका शास्त्रोक्त प्रमाण भी देते हैं। इन सभी समूहों की सामाजिक-राजनीतिक प्रतिक्रिया
सामान्यत: भिन्न होती है। बीकानेर के सन्दर्भ में बात करें तो यहां का पुष्करणा ब्राह्मण समुदाय ब्राह्मणों में ना केवल अपने को श्रेष्ठतम मानता है बल्कि इलाके विशेष में अच्छी-खासी तादात और इनके मुखर होने के चलते राज में भी इस समुदाय की भागीदारी हमेशा प्रभावी रही है। यद्यपि एक अरसे से लगातार इनके ही विभिन्न समूहों के बीच की रेखाएं ना केवल गहरी होती जा रही हैं बल्कि इनकी उपजातियों की पहचान बताने में भी हिकारत बरती जाने लगी हैं। 1990 में आम हुए एक शब्द ओबीसी का उपयोग यह समुदाय अपनी तीन उपजातियों के नाम के प्रथमाक्षरों से करके उन्हें अलग बताया जाने लगा तो जो उपजाति अपने को उच्च बताती थी उन्हें बीच की उपजातियों को अपने में गिन लिए जाने का भय सताने लगा। पिछले दस वर्षों में बड़ी हिकारत से इन ‘ओबीसी’ उपजातियों को ‘शिड्यूल कास्ट’, ‘ओबीसी’ और ‘सवर्ण’ जैसी पहचान ना केवल दी जाने लगी बल्कि चुनावी माहौल में ये सुर्खियां भी पाने लगी हैं।
12 दिसम्बर, 2013
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