बीकानेर शहर सीट से 1980 का विधानसभा चुनाव डॉ बीडी कल्ला ने जीता और 1985 का भी। मतदाताओं को पुराने चेहरों से ऊब और उम्मीदें कम हो गई थीं। अलावा इसके 1985 तक आते-आते जनता दल में तबदील हुई जनता पार्टी से मोह भंग के शिकार लोकप्रिय नेता मक्खन जोशी चुनाव हार गये। कांग्रेस की बनती सरकार में कल्ला का फिर से मंत्री बनना तय दिख रहा था। तब तक कल्ला के खिलाफ कोई खास असन्तोष भी शहर में बना नहीं था। भैरोसिंह शेखावत से नजदीकी के चलते भारतीय जनता पार्टी से उम्मीदवारी महबूब अली ले तो आए पर न तो उनके मित्रों ने, न संघ ने, न पार्टी ने और न ही उनके समुदाय ने उन्हें स्वीकारा। 1977 में अच्छे खासे अन्तर से जीतने वाले महबूब अली सम्मानजनक वोट भी नहीं जुटा पाये। यह चुनाव ऐसा दिखा जिसमें किसी जाति या समुदायविशेष
का असर खास देखने में नहीं आया था।
वहीं इस दौर में होने वाले लोकसभा चुनावों में मान लिया गया था कि बीकानेर की सीट जाट समुदाय के लिए ही तय है। यद्यपि इस मिथक को तोड़ने की कोशिश देवीसिंह भाटी के बेटे महेन्द्रसिंह
ने सन् 1996 में जीत दर्ज कर की लेकिन यह महेन्द्रसिंह की जीत कम और मनफूलसिंह की हार ज्यादा थी। इसकी पुष्टि में 1998 में फिर हुए। चुनावों में कांग्रेस ने भारी भरकम जाट नेता बलराम जाखड़ को भाजपा के महेन्द्रसिंह के खिलाफ पंजाब से लाकर जितवा लिया। जाट फैक्टर की बात भाजपा के भी समझ में आने लगी और 1999 में हुए चुनावों में कांग्रेस के रामेश्वर डूडी के खिलाफ रामप्रताप कासनियां को उतारा। हालांकि कासनियां हार गये। 2004 के चुनावों तक भाजपा ने सीट को कब्जाने की ठान ली और पंजाबी जाट व सिने अभिनेता धर्मेन्द्र को अपना उम्मीदवार बनाया और जितवा भी लिया। नये परिसीमन के बाद हुए चुनावों में बीकानेर लोकसभा क्षेत्र सुरक्षित घोषित हो गया। तब जाकर इस लोकसभा क्षेत्र में जाट राजनीति का उत्साह ठण्डा पड़ा।
1990 के विधानसभा चुनाव तक बीकानेर में जनता दल का अस्तित्व रहा, बल्कि 1989 में मंडल कमीशन की सिफारशें लागू करने के बाद उम्मीदें की जाने लगी कि इनसे लाभान्वित बहुसंख्यक वर्ग जनता दल के लिए तत्पर होगा। पर कैडरविहीन यह पार्टी बीकानेर तो क्या देश में कहीं भी राजनीतिक लाभ लेने में असफल रही। 1990 के चुनावों तक जैसा कि बताया गया डॉ बीडी कल्ला का तिलिस्म टूटने लगा था। पुराना समाजवाद प्रभावी क्षेत्र होने के चलते दिग्गज समाजवादी मानिक सुराना टक्कर देने की स्थिति में तो रहे पर मुखर पुष्करणा समुदाय का मतदान से पहले अपने समुदाय के डॉ बीडी कल्ला की तरफ लामबन्द होने से मानिक सुराना चुनाव हार गये। जबकि इस चुनाव में कल्ला के प्रति अपने समुदाय में तथा आमजन में नाराजगी थी। नाराजगी के बावजूद पुष्करणा समुदाय का अपने ही समुदाय के भाजपा उम्मीदवार और शहर के दिग्गज भाजपाई ओम आचार्य को छोड़ कर डॉ बीडी कल्ला की तरफ जाने का एक कारण तब यह भी माना गया कि ओम आचार्य की उपजाति अपने को ऊंची मानती रही है। सौ पुष्करणा समुदाय की शेष उपजातियों ने विकल्प मिलने पर अन्य उम्मीदवार का साथ होने में संकोच नहीं किया। जमानत की राशि कम होने और अन्य कोई खास औपचारिकताएं नहोने के कारण 1990 के विधानसभाई चुनाव में बीकानेर शहर सीट से 27 उम्मीदवार मैदान में थे।
11 दिसम्बर, 2013
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