Friday, November 8, 2013

संवाद मतदाताओं से

सभ्यता के इन हजारों सालों में लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था को श्रेष्ठ माना गया है। इतिहास में भी जब-तब इस तरह की या इसके आस-पास की व्यवस्था का उल्लेख सकारात्मक ढंग से मिलता है। ज्ञात आनुभविक इतिहास की शासन प्रणालियों में लोकतान्त्रिक व्यवस्था को तुलनात्मक रूप से ज्यादा मानवीय बताया जाता है वहीं इसकी सीमाओं और कमियों का उल्लेख भी मिलता है। भारत सन् 1947 में आजाद हुआ। आजादी के इन छियासठ वर्षों में विकास के नाम पर हमने बहुत कुछ हासिल किया तो मानवीय तौर पर बहुत कुछ खोया भी है।
देश की एक-चौथाई से ज्यादा आबादी के पास भरपेट भोजन, तन पर कपड़ा और रहने को आश्रय नहीं है। गरीब के पास किसी तरह के हक-हकूक नहीं। जिनको किसी भी तरह का सत्तारूप हासिल है वे अन्य सत्तारूपों को हासिल करने में लगे हैं। ये सत्ताएं धन, धर्म, समाज, जाति, बाहुबल और शासन में भागीदारी जैसे रूपों में प्रतिष्ठा हासिल किए हैं। देश के हवाले से बात करें तो इसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार ना केवल दिन--दिन बढ़ता गया बल्कि अब तो उसे सामाजिक स्वीकृति भी हासिल हो चुकी है। भ्रष्टाचार देश के सभी तरह के चुनावों को प्रभावित करने की हैसियत पा चुका है। भ्रष्ट साधनों से चुने गये शासक अपने को हासिल की सुरक्षा भी इन्हीं भ्रष्ट साधनों में देखने लगे हैं। इसलिए हर उस प्रयास को निष्फल करने की कोशिश में लग जाते हैं, जिससे इन भ्रष्ट साधनों पर कोई आंच आए। फिर वह चाहे सूचना का अधिकार कानून हो या चुने हुए प्रतिनिधि को वापस बुलाने का या फिर सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे निर्देश जिनसे ये शासक अपने को असहज पाते हैं।
इसके अलावा भी कोई शासक यदि तानाशाही मानसिकता वाला जाये तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था और मानव अधिकारों के लिए खतरा बन जाता है। विश् इतिहास में हिटलर इसका बड़ा उदाहरण है और आंशिक तौर पर हमारे देश में भी आपातकाल के रूप में इसे देखा जा सकता है। 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहनलाल सिन्हा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का रायबरेली से लोकसभा का निर्वाचन रद्द कर दिया था। इन्दिरा गांधी ने बजाय इस्तीफा देने के गैर लोकतान्त्रिक मंशा से देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया। अपने लोकतान्त्रिक संस्कारों के चलते या अपने पक्ष में माहौल के भ्रम के चलते 1977 में इन्दिरा गांधी ने लोकसभा चुनावों की घोषणा कर दी अन्यथा कह नहीं सकते कि कितने वर्षों तक देश लोकतान्त्रिक अधिकारों से वंचित रहता। इन्दिरा गांधी के बाद के व्यवहार से तो यही लगता है कि आपातकाल के अपने निर्णय से उन्होंने सबक ही लिया।
भारतीय जनता पार्टी के घोषित प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी के संस्कार ना केवल अलोकतान्त्रिक हैं बल्कि इनकी हेकड़ी और हाव-भाव बताते हैं कि उनसे अब तक जो कुछ भी हुआ वह सब सही ही हुआ है। गुजरात सरकार को नाम मात्र के मंत्रिमंडल से सीधे खुद चलाना, लोकपाल जैसे पद को मुख्यमंत्री के कब्जे में रखने के विधेयक को पारित करवाना, अपने पक्ष में माहौल बनाए रखने के लिए फर्जी मुठभेड़ों को अंजाम दिलवाना जैसे पर्याप्त उदाहरण हैं जो नरेन्द्र मोदी की मानसिकता को दर्शाते हैं। 2002 के गुजरात दंगों में मोदी केराजधर्मसे च्युत होने का उल्लेख तो स्वयं उनकी पार्टी के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने किया था। मोदी एकफीतगुजरात में विकास की लगाए घूमते हैं तो क्या विकास की कसौटी उद्योगपतियों, कॉरपोरेट घरानों और बड़े व्यवसायियों का विकास ही है? गुजरात में देश के दूसरे हिस्सों की तरह ही कमोबेश भ्रष्टाचार है और अन्य अनेक राज्यों से ज्यादा कुपोषण, बेरोजगारी और न्यूनतम जीवन स्तर की जरूरतों की कमियों के आंकड़े स्वयं इनकी सरकार के ही दिए हुए हैं। देश को उक्त तरह की परिस्थितियों से बचना है तो मतदाताओं को अपने वोट का मतलब और ताकत दोनों समझनी होगी, इसके इतर कोई समाधान नहीं दिखता, अन्यथा भ्रष्ट और अमानवीय व्यवस्थाओं के साथ तानाशाही की आशंकाएं हमेशा बनी रहेगी। यदि ऐसा संभव कर लेते हैं तो लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली से बेहतर कोई शासन प्रणाली नहीं है।

8 नवम्बर, 2013

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