बीकानेर जिले की सातों विधानसभा सीटों पर 16 नवम्बर के बाद ना केवल गोटियां बिछ चुकी हैं बल्कि धीरे-धीरे तसवीर भी साफ होने लगी है। जहां उलझाड़ है वहां मतदान के दिन तक उलझाड़ बने रहेंगे। रही सही कसर 25 को होने वाली नरेन्द्र मोदी की रैली के बाद पूरी हो लेगी। वैसे यह रैलियां तमाशों से ज्यादा इसलिए नहीं रही कि टीवी के खबरिया चैनलों ने इन रैलियों की उत्सुकता को रगड़ कर रख दिया है।
बीकानेर की सात में से पांच सीटों पर सीधी चुनौतियां
हैं। शेष दो में से एक नोखा सीट पर कहने को चुनौती चतुष्कोणीय कही जा सकती है पर वह रह त्रिकोणीय ही गई है। दूसरी लूणकरनसर
सीट की चुनौती त्रिकोणीय
बन गई है। सातों सीटों की बात नोखा से शुरू करें तो नोखा से कांग्रेस के रामेश्वर डूडी व भाजपा के सहीराम बिश्नोई के अलावा वर्तमान विधायक और सरकार में संसदीय सचिव कन्हैयालाल
झंवर व भाजपा के बागी बिहारीलाल
बिश्नोई दोनों ही निर्दलीय उम्मीदवार
के रूप में डटे हुए हैं। इन चारों उम्मीदवारों में सबसे पतली हालात भाजपा के सहीराम की मानी जा रही है। क्षेत्र के लोग उनकी जमानत जब्त होने की बात करते भी संकोच नहीं कर रहे हैं। भाजपाई झुकाव के वोटरों को अभी तक यह बात समझ नहीं आ रही कि वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंतसिंह
तक पहुंच रखने वाले बिहारीलाल का टिकट कटा कैसे? इसी समझ के चलते भाजपाई सोच और कांग्रेस विरोध के वोटरों का झुकाव बजाय पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी सहीराम बिश्नोई की तरफ होने के बिहारीलाल की तरफ होता जा रहा है। बिहारीलाल
के पक्षकार यह कहते भी संकोच नहीं कर रहे हैं कि यह सब पार्टी के दिग्गज और क्षेत्र में चौधर करने वाले देवीसिंह भाटी का किया-धरा है और भाटी ने अपने बट काढ़ने के लिए पार्टी की साख को दावं पर लगा दिया है। इन्हीं सब के चलते बिहारीलाल
उस सहानुभूति
के भागी बनते जा रहे हैं जो अन्यथा पार्टी प्रत्याशी
बनने पर भी उन्हें शायद ही हासिल होती और इसीलिए बजाय सहीराम के बिहारीलाल त्रिकोणीय ‘रेस’ में शामिल होने में सफल होते दिख रहे हैं।
जिस तरह पिछली बार कन्हैयालाल झंवर नोखा कस्बे में हो लिए थे वैसे आसार इस बार नजर नहीं आ रहे हैं। इसमें सबसे बड़ी सेंध बिहारीलाल
लगाते दिख रहे हैं। वे जिस तरह कस्बे में अपनी साख बनाते लग रहे हैं उससे लगता है कि भाजपा के असल उम्मीदवार वही हैं। दूसरी ओर कांग्रेस के रामेश्वर डूडी की स्थिति नोखा कस्बे में पिछली बार से ज्यादा अच्छी है। लगता है पिछले चुनावों के सबक का उन्होंने भली-भांति अध्ययन किया और उस पर काम भी किया है। ऐसी ही स्थितियों के चलते कन्हैयालाल
झंवर दबाव में आए दिखने लगे हैं। अलावा इसके जिसे आजकल एंटी इंकम्बैंसी कहा जाता है या जिसे शासन या व्यवस्था विरोध भी कह सकते हैं उसके शिकार अकेले कन्हैयालाल
झंवर होते इसलिए दिख रहे हैं क्योंकि वे ना केवल विधायक हैं बल्कि सरकार में भी उनकी भागीदारी
है। इसका छाया लाभ सीधे-सीधे रामेश्वर डूडी को मिलता इसलिए दिखाई दे रहा है कि वह इस एंटी इंकम्बैंसी के फेर में नहीं आ रहे हैं। कस्बे के बनते इस माहौल की हवा क्षेत्र के गांवों में पहुंची तो झंवर की स्थिति कमजोर होते देर नहीं लगेगी।
रही बात डूडी की तो जैसा कि ऊपर जिक्र किया है कि पिछले पांच वर्षों में उन्होंने अपनी हार के सबक का ना केवल अच्छी तरह अध्ययन किया बल्कि उसे वे क्रियान्वित
करते भी दिखाई दिए--उन्होंने ना केवल जाटों में अपनी साख बढ़ाई बल्कि लो--प्रोफाइल रह कर अन्य जातिसमूहों में भी अपने प्रति सकारात्मक
सोच बनाते दिखे। कभी धुर विरोधी रहे रेंवतराम
पंवार और गोविन्द मेघवाल को भी अपने साथ ले लिया। ये सब वोटों के झारे तो नहीं हैं फिर भी माहौल को पक्ष-विपक्ष में करने की भूमिका बखूबी निभा सकते हैं। नोखा की राजनीति को समझने वाले मानते हैं कि डूडी वोटों का एक बड़ा जखीरा पहले ही सुरक्षित कर चुके हैं जिसमें बाकी के तीनों उम्मीदवार
सेंध लगाने में सफल नहीं होंगे। रही बात जीत-हार की तो बिहारीलाल और कन्हैयालाल एक-दूसरे से छीनने में कितने सफल होंगे सारा दारमदार इसी पर होगा। भाजपा के अधिकृत प्रत्याशी
होते हुए भी सहीराम बिश्नोई शामिल हो पाएंगे कहना मुश्किल है।
22 नवम्बर, 2013
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