चुनावी तारीख की घोषणा और प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी पार्टियों के उम्मीदवारों की अधिकृत घोषणा के बीच के ये पन्द्रह-बीस दिन ऊहा-पोह और उम्मीदों से सराबोर होते हैं, ऐसा ही है भी। जिन क्षेत्रों के उम्मीदवार लगभग तय माने जा रहे हैं, बावजूद इसके वहां के अन्य दावेदार अपनी-अपनी पार्टियों में अपनी-अपनी क्षमता और अपने-अपने सम्पर्कों से पुरजोर कोशिशों में लगे रहते हैं, उन्हें लगता है कि ‘सिम्बल-लैटर’ मिलने तक कुछ भी सम्भव हो सकता है, सौ में दो-चार पर होता भी है। बीकानेर शहर सीट का ही उदाहरण बताया जा सकता है। 1977 के विधानसभा चुनावों में जनता पार्टी से मक्खन जोशी का नाम तय हो चुका था। महबूब अली डटे रहे और ‘सिम्बल लैटर’ लेटर ले आए। सावचेती के अभाव में अठारह-बीस घंटों में ही उलट-पुलट हो गया था।
कुछ दावेदार ऐसे भी होते हैं जिन्हें ‘बिल्ली’ मुद्रा में देखा जा सकता है कि कब छींका आ गिरे। दावों में बिना पुख्ता आधार और किसी तरह की सिट-पिट ना दिखने के बावजूद ऐसे दावेदार कुछ ले पड़ने की उम्मीद में होते हैं, ऐसे असफलों के बीकानेर में ही सैकड़ों-उदाहरण दिए जा सकते हैं पर सफलता का एक उदाहरण नोखा के विधायक रहे सुरजाराम का दिया जा सकता है। 1980 के चुनावों में ऐसा ही घटित हुआ था।
इसीलिए जो लोग थोड़ी-बहुत भी उम्मीद से हैं उन्हें अपनी सिट-पिट, सम्पर्कों पर अधिकतम भरोसा तब तक बनाए रखना चाहिए जब तक किन्हीं बीडी कल्ला, गोपाल जोशी और सिद्धीकुमारी को पार्टी का अधिकृत ‘सिम्बल लैटर’ ना मिल जाए। रही बात ऊहा-पोह की तो उसे उनको अपने से परे ही रखना है जो उम्मीद से हैं, ऊहा-पोह को उन्हें टिकटों का निर्णय करने वालों, पत्रकारों और हल्लर-फलरियों के लिए छोड़ देना चाहिए। पता नहीं कब किसी की गोटी महबूब अली की तरह एन मौके पर फिट हो जाए या सुरजाराम की तरह अचम्भित करने वाला उदाहरण बन जाय।
बीकानेर (पूर्व)
में जहां भाजपा की सिद्धीकुमारी निश्ंिचत हैं तो कांग्रेस के पचासों नामों की दौड़ में वल्लभ कोचर भी गिनती में आ गये हैं। यह सब इस सीट पर से अल्पसंख्यक टैग हटने के बाद से हुआ है। वहीं पिछड़े वर्ग के दावेदार इसे अपनी सीट मान कर चल रहे हैं। संभव है कि बीकानेर (पूर्व) से इस बार कांग्रेस किसी अन्य पिछड़े या वणिक को आजमाए, पर इससे पासा पलट जाएगा कहना जल्दबाजी होगी। सिद्धीकुमारी की उम्मीदवारी इस सीट को कांग्रेस के लिए फिर पेचीदा बनाए रखेगी।
बीकानेर (पश्चिम) से पूर्व विधायक नन्दलाल व्यास की स्वास्थ्य प्रतिकूलताओं के चलते चुनावी मंजर ठिठक गया है, अन्यथा वे ना केवल अपनी पार्टी भाजपा की सांस अटकाए रखते बल्कि प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के कल्ला बन्धुओं की चुनावी रणनीति को भी ‘ब्लॉक’ किए रख सकते थे। बिना नन्दू महाराज की सक्रियता के यह चुनावी माहौल अपने शुरुआती दौड़ में उदास नजर आ रहा है।
9 अक्टूबर, 2013
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