Saturday, October 5, 2013

कार सेवा और बान भराई इतनी आसान कब से?

आगामी विधानसभा चुनावों से पहले राजनीति में खुल्लम-खुल्ला खड़काने के आखिरी दिन स्थानीय रेलवे ग्राउण्ड में अन्य पिछड़ा वर्ग के नाम से महापंचायत हुई। रुष्ट भाजपाई गोपाल गहलोत के आह्वान और अन्य पिछड़ा वर्ग विकास मंच के परचम तले हुई इस रैली को संख्या के हिसाब से आयोजकों की उम्मीदों पर खरा नहीं मान सकते पर ऐसा भी नहीं कि निराशाजनक रही हो। जैसा कि गोपाल गहलोत ने अपने संबोधन में कहा कि आजादी बाद शहर में यह पहला आयोजन है जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग की सभी जातियों को जोड़ने की कोशिश की गई, जो एक हद तक सही भी है।
लोकतन्त्र में राजनीति का आधार संख्याबल है। आजादी बाद इस संख्याबल की श्रेणीबद्धता का आधार जातीय अपनाया गया और उत्तरोत्तर इसे मजबूत भी किया गया। सुविधा से प्रगतिशील चाहे इस जातीयता पर नाक-भोंह सिकुड़े पर समर्थों की मनशा में हमेशा खुद के हित ही सर्वोपरि रहे हैं, सो जैसे-तैसे भी सधे, उन्हें साधा जाता रहा है। संख्याबल की बात करें तो आरक्षण की व्यवस्था में जिन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग का दर्जा दिया गया वे शेष कुल जमा अनुसूचित जाति, जनजाति और सामान्य वर्ग की जातियों से ज्यादा हैं यानि कुल जनसंख्या का आधे से अधिक। इसके बावजूद राज में लूट की हिस्सेदारी इन पिछड़े वर्गों की सबसे कम रही है। हो सकता है यह सच्चाई अधिकांशसुविधा से प्रगतिशीलोंको कड़वी लगे पर इससे यह झूठ तो नहीं हो सकती।
बात को फिर गोपाल गहलोत और उसकी कल की महापंचायत पर टिकाते हैं। इस महापंचायत पर इसी 30 सितम्बर के विनायक के सम्पादकीय सहित उसमें उल्लेखित 3 दिसम्बर, 2011 और 7 दिसम्बर 2011 के सम्पादकीयों की रोशनी में बात करें तो संख्याबल के बावजूद इन पिछड़ों के राजनीति में पिछड़ने की पड़ताल की जा सकती है। सावचेती सेविनायकफिर यह स्पष्ट कर दे कि उसकी इस पड़ताल को उक्त राजनीतिक उल्लेखों की तरफदारी ना माना जाय, विनायक शुद्ध साध्यों को हासिल करने के साधनों के भी शुद्ध होने की पैरवी करता रहा है।
बात व्यावहारिक राजनीति की हो रही है, 66 पार की प्रौढ़ हो चुकी इस राजनीति ने जो गुण ग्रहण किए उनमें काले-सफेद धन को परोटना, मन कर्म से बाहुबलि होना (बाहुबलि दीखना जरूरी नहीं)--दबंगई और लपंटई पुट भी दिए जा सकते हैं, ‘गोलीदेने में पारंगता तो जरूरी है ही। बाद इनके जो सबसे ज्यादा जरूरी यह कि इन सबगुणोंको उपयोगछाकटाईसे करना, यहछाकटाईही आज की व्यावहारिक राजनीति में सफलता की कुंजी बन गई है, कोई पाठक अपवाद पेश करे तो एतराज नहीं है, अपवाद नियम की ही पुष्टि करते हैं, ऐसी एक अंग्रेजी कहावत है।
गोपाल गहलोत की राजनीति पिछले दो वर्षों के उनके पग-पिटे और कल की महापंचायत की पड़ताल से यही लगता है कि उनमेंछाकटाईकी कमी है अन्यथा दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक महासभा की खैचल के बाद से ही उन्हें जिस तरह की कवायद में लगना था, नहीं लगे, ये दो वर्ष उन्होंने जाया किये, अब के ये प्रयत्न उनके राजनीतिक पेशे को कितना लाभ पहुंचाएंगे कहना मुश्किल है।
चुनावी फिजा बदलने के लिए हाल ही की जैसी लम्बी सक्रियता की जरूरत थी, कहते भी हैं समय लौट कर नहीं आता है। गोपाल गहलोत में छाकटाई होती तो अपनी कुण्ठाओं का प्रदर्शन बार-बार नहीं करते, गहलोत इससे कल भी नहीं चूके, बिना अपनी बात का वजन जांचे बदला लेने का आह्वान कर दियाहो सकता है महापौरी चुनाव में खुद की ही पार्टी के शहर के दोनों विधायकों ने उन्हें सहयोग ना किया हो, क्या उन्होंने वो सब इस तरह घोषणा करके किया था। मान लेते हैं गोपाल जोशी तो घाघ राजनेता हैं परअनाड़ीसिद्धीकुमारी भी बड़ी चतुराई से कारसेवा कर गई, सचमुच ऐसा है तो उनसे ही कुछ सीखा होता। रामचरित मानस में उल्लेख है कि रावण जब मरणासन्न थे तो राम ने लक्ष्मण को प्रेरित किया कि जावो कुछ सीख आओ। गोपाल गहलोत क्या इतना भी नहीं समझते किबाननिकटों द्वारा ही भरा जाता है। उन्होंने क्या इतनों को अपना बना लिया कि विदाई की रस्म पूरी हो सके, अगर ऐसा नहीं है तो वे आपा क्यों देते हैं।

5 अक्टूबर, 2013

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