Thursday, October 24, 2013

लोकतंत्र सठियाए नहीं, प्रौढ़ हो

लोक में कैबत तो है बच्चा-बूढ़ा एक समान होते हैं, लेकिन छियासठ साल की प्रौढ़ावस्था में भी अपना लोकतंत्र बचकाना होता जा रहा है। वैसे कहा यह भी जाता है कि साठे बुद्धि न्हाठे, जिसे सठियाना भी कहा जाता है। पूरे देश में चुनाव नहीं हो रहे हैं, कुल जमा पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं, उनमें हम तथाकथित मुख्यधारा वाले मिजोरम को कोई खास भाव वैसे भी नहीं देते। शेष चार राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली के चुनावों को मीडिया देश के आम चुनावों का सेमीफाइनल कहने लगा है। लोकसभा चुनाव 2014 के मार्च-अप्रैल में होने हैं लेकिन मीडिया ने होळका की तर्ज पर पूरे देश में चुनावी चोळका कर दिया है। चुनावी मुद्दों को तय करने का असल काम मतदाताओं का होना चाहिए पर मतदाताओं को इतना भर करना ही बताया जा रहा है कि किस चिह्न के बटन को दबाना है। पहले चौफूली की मुहर भर लगानी होती थी।
चुनावी मुद्दे भी अब तो अकेले राजनीतिक पार्टियां नहीं तय करती। उन मुद्दों को सजाने, रंग भरने का काम मीडिया वाले बखूबी करने लगे हैं। कलर देने या सजाने के इस काम को करने की डील में करोड़ों के वारे-न्यारे कब और कैसे हो जाते हैं, इसकी खबर किसी को कानों-कान भी नहीं होने दी जाती।
देश की आम-आवाम के जीवन यापन की न्यूनतम जरूरतें क्या हैं, उन्हें कैसे मुहैया करवाया जा सकता इस पर चर्चा नहीं होती। दोनों मुख्य पार्टियां भाजपा और कांग्रेस अपने-अपने पोस्टर बॉय के माध्यम से पप्पूयाना तरीके या फेंकू अंदाज मेंइमोशनली ब्लैकमेलकरने में लगी हैं। नरेन्द्र मोदी ने अपने को चाय की थड़ी पर काम करने वाला बताकर तो राहुल गांधी कल चूरू और अलवर की सभाओं में अपनी दादी और पिता की हत्याओं का जिक्र करके वोट बटोरने की जुगत बिठाते देखे गये।
इस देश की समस्याओं के मूल कारणभ्रष्टाचारकी बात केवल रस्मी तौर पर की जाती है। उससे निजात कैसे मिल सकती है, इस पर विचार करना किसी भी पार्टी के एजेंडे में नहीं है।

व्यक्तिगत और भावात्मक मुद्दों को उठाने का सीधा मतलब यही है कि इन पार्टियों और इनके नेताओं के पासअसल सामानखूट गया है। भावनाओं में बहा कर वोट लेने की जुगत सरासर गैर-लोकतान्त्रिक है, पर इस देश में आजादी बाद से ही भिन्न तरह के घोर गैर-लोकतान्त्रिक तरीकों से वोट लिए जाने का काम होता रहा है। देश के लोकतंत्र को अपनी उम्र के साथ सठियाने की नहीं प्रौढ़ होने की जरूरत है, और सावचेती की भी ताकि वोटरों को उल्लू बना कर यह नेता और राजनीतिक पार्टियां अपना उल्लू सीधा ना कर पाए। व्यापक और सार्वजनिक हितों को नजरंदाज करके वोट नहीं दिए जाते हैं और ना ही तुच्छ और निहायत व्यक्तिगत स्वार्थों के वशीभूत होकर।

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