Wednesday, September 4, 2013

गवर्नमेंट प्रेस, बीकानेर

गवर्नमेंट प्रेस, बीकानेर को लेकर छुट-पुट खबरें कभी बनी हों याद नहीं आता। हां, चुनावों के दिनों में जरूर इसका नाम अखबारों में जाता था। निगम, पंचायतों से लेकर लोकसभा चुनावों तक के राजस्थान के एक बड़े हिस्से के मतपत्र इसी प्रेस में छपा करते थे। जब से ईवीएम से चुनाव होने लगे तब से इस प्रेस की यह जरूरत भी खत्म हो गई। शेष जरूरतें तो लम्बे समय पहले ही खत्म हो चुकी थी। सरकारी काम जो पहले कभी इन प्रेसों में हुआ करता था, धीरे-धीरे निजी प्रेसों में होने लगा। इसकी ज्यादा जिम्मेदार तो इस प्रेस की बिगड़ती व्यवस्था ही थी। किसी विभाग की जरूरत और समय अनुसार काम ना करके देना इसका एक बड़ा कारण था। इसी के चलते सरकारी विभागों ने निजी क्षेत्र की प्रेसों की ओर रुख किया। इस तरह से काम करवाने में कमीशनखोरी की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
गवर्नमेंट प्रेस की बिगड़ती व्यवस्था की जिम्मेदारी भ्रष्ट और अकर्मण्य अधिकारियों के साथ वहां के कार्मिकों की भी है। अधिकारियों और कार्मिकों ने अतिरिक्त लाभ और सुविधाएं उठाना शुरू किया तो दोनों समूहों की नाड़ एक-दूसरे से दबने लगी। अधिकारी कमीशनखोरी, हरामखोरी और मशीनों की नीलामी में पैसे बनाने लगे, वहीं कर्मचारियों ने कई तरह की गड़बड़िया शुरू कीं। सीसे का टाइप और काम आने वाली अन्य सामग्री चोरी-छिपे बाजार में आने लगी। उन कुछेक अधिकारियों-कर्मचारियों को छोड़ दें जो ड्यूटी के पक्के और ईमानदार थे, पर वे चुप रहे। धीरे-धीरे प्रेस में काम का माहौल ही खत्म हो गया, तब अच्छे लोग दिन भर सौ कर या हथाई कर समय गुजारने लगे। कुछ ऐसे भी थे जो हाजरी लगा कर प्रेस से बाहर या तो घर पहुंच जाते या तफरियां करते। कुछ ऐसे भी रहे जो ड्यूटी टाइम में ही निजी प्रेसों में काम करते तो कुछ जो सोगन के सच्चे रहने के लिए ड्यूटी टाइम के अलावा देर रात तक और सुबह-सवेरे निजी प्रेसों से अतिरिक्त कमाई का जुगाड़ बिठा लेते। अब यह पाठक ही तय करें कि इनमें से किसे कितना बेईमान कहा जाय।
पिछले कुछ दिनों से यह प्रेस चर्चा में तब आई जब इसके भवन को खाली करवाने की सुगबुगाहट शुरू हुई। पिछली सदी के तीसरे दशक में इस भवन में आने से पहले रियासती प्रेस जूनागढ़ में ही छोटे रूप में संचालित होती थी। तीसरे शासक गंगासिंह को अपने कार्यकलापों के प्रचार-प्रसार की इच्छा जगी तो वर्तमान भवन को बनवाया और विदेशों से मशीनें और अन्य सामग्री से इसे सुसज्जित किया। शुरू में काम करने वालों में अधिकांश निष्ठावान और गुणवत्ता से काम करने वाले अधिक थे, तब इस प्रेस की पेठ भी थी। बीकानेर की इस प्रेस के भवन को आदर्श भवन कहा जा सकता है, दिन में ना केवल बिना कृत्रिम रोशनी के पूरा काम हो सकता है बल्कि बिना सीसीटीवी कैमरों के प्रशासनिक कक्षों से पूरे कार्यक्षेत्र को नजरों की जद में भी रखा जा सकता है।
लगभग निकर्मी हो चुकी इस प्रेस के कर्मचारियों ने इसे इस भवन से हटाने का विरोध शुरू किया है। इन कर्मचारी संघों से कोई पूछने वाला नहीं है कि आपने अपने इसरिज़ककी कितनी और कब परवाह की है। पिछले एक अर्से से इनमें से अधिकांश ने थाली में छेद ही किया है। ऐसे लोगों को हथेली में खाने की नौबत आई तो चिल्लाने लगे। लेकिन वे ये भूल रहे हैं कि अपने लखणों के चलते थाली को अगली पीढ़ी के लिए  सुरक्षित ना रहने देने के जिम्मेदार वे भी कम नहीं हैं।
गवर्नमेंट प्रेस ही क्यों सार्वजनिक क्षेत्र की छोटी बड़ी सभी इकाइयां ऐसे ही हश्र को प्राप्त हो गई हैं या हो रही हैं। इसके लिए कर्मचारी संघ भी बड़े दोषी हैं जिन्होंने हमेशा केवल हकों की बात की, कर्तव्य जैसा शब्द उनके मुख से कभी सुना नहीं गया। ऐसा विनायक एक से अधिक बार पहले भी कह चुका है।

4 सितम्बर, 2013

No comments: