भाजपा के लिए लगभग अपरिहार्य मान लिए नरेन्द्र मोदी को आज ‘पीएम इन वेटिंग’ से नवाजा जा सकता है। गोवा से शुरू हुए इस ‘पारिवारिक एपिसोड’ का दुःखद अंत होता लगता है। स्थितियां ऐसी बन गई हैं कि भाजपा लालकृष्ण आडवाणी को भीष्म जैसा गरिमामयी अंत देने को भी तैयार नहीं है, उन्हीं लालकृष्ण आडवाणी को जिनकी वजह से ही भाजपा आज ‘पीएम इन वेटिंग’ घोषित करने के मुकाम पर है। बिहार के सुशील मोदी ने आडवाणी का समय समाप्त होने तक की घोषणा कर दी और कहा जा रहा कि भाजपाई वरिष्ठों में यह बात भी होने लगी है कि बूढ़ा सठिया गया है।
लगता है भाजपा उस परिवार की तरह व्यवहार करने लगी है जिसमें उद्दण्ड पुत्र दीखती भारी सफलताओं में अपने पिता को ही बाधा मानने लगे और पिता को जबरिया ‘ओल्डएज होम’ में भेजने को उतारू हो जाए, यह भूल कर कि आज की उनकी यह हैसियत उस पिता की वजह से ही।
आडवाणी खेमे से इस दौर का पहला मुखर बयान कल आ गया है, उनके विश्वस्त सुधीन्द्र कुलकर्णी की ओर से उन्होंने जो कहा उसमें बहुत से कुछ ज्यादा कह दिया गया है--‘ये देश के हित में नहीं है, क्योंकि एक ऐसा नेता जो सामाजिक रूप से ध्रुवीकरण करने वाला है, वो स्थिर और सुगम सरकार कैसे देगा’ कुलकर्णी का यह वक्तव्य लोकतान्त्रिक
सोच वाले ‘कुछेक’ लोगों की मोदी सम्बन्धी आशंकाओं को पुष्ट करता है।
लोकसभा में चुनकर सर्वाधिक सदस्य भेजने वाले उत्तरप्रदेश
में अमितशाह के जाने के बाद से वहां ‘गुजरात मॉडल’ लागू करने का काम शुरू हो गया। अनाड़ी मुख्यमंत्री के चलते अमितशाह की राहें इतनी आसान हो गई कि मुज्जफरनगर से पहला परिणाम भी शाह को मिल गया। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में चरणसिंह--अजीतसिंह की जाट बिरादरी में भाजपा पहली बार सफल होती दीख रही है। रही बात दंगों में मृतकों कि तो वे कह सकते हैं कि हमारे यहां बड़ी उपलब्धियों के लिए ‘बलि’ की परम्परा रही है।
कुछ विश्लेषक कहने से नहीं चूक रहे कि भाजपा के राजनाथसिंह बिना सूत-कपास लट्ठम-लट्ठा पर उतारू हैं। ऐसे विश्लेषक शायद भूल कर रहे हैं कि दृष्टिभ्रम की भी कोई अवस्था होती है। राष्ट्रीय अध्यक्ष ने अपने पहले कार्यकाल की असफलता से लगता है सबक कुछ ज्यादा ही ले लिया और वह वो कर दिखाना चाहते हैं जिसकी उम्मीद कोई नहीं कर सकता। उन्होंने सभी तरह के समीकरणों, स्थितियों और आशंकाओं को दर किनार कर दिया, वे भूल रहे हैं कि उन्होंने उन नरेन्द्र मोदी की सवारी की है जिन्होंने ना केवल एक से अधिक बार पार्टी और वरिष्ठों को अंगूठा दिखाया है बल्कि माई-बाप संघ को भी आईना दिखाने से नहीं चूके। भाजपा के गठन के बाद पहली बार पार्टी को पूरी तरह संघ के शिकंजे में होने जैसी परिस्थितियां भी नेतृत्व के कमजोर होने की ही बानगी हैं।
देश की वर्तमान लोकतान्त्रिक
परिस्थिति को देखकर कहा जा सकता है कि यह लोकतन्त्र की सीमाएं ही हैं कि मतदाता के सामने चुनने के लिए ‘बद’ के विकल्पों के तौर पर सम्मुख ‘बदतर’ ही है। फिलहाल ऐसी ही उम्मीदें करना ज्यादा मानवीय होगा कि मोदी के अन्य सिपहसलारों को दूसरे राज्यों में अमितशाह की तरह ‘गुजरात मॉडल’ लागू करने की अनुकूलता ना मिले और ना ही दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री
अखिलेशसिंह की तरह नादान साबित हों।
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सितम्बर, 2013
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