Saturday, August 17, 2013

राष्ट्रीय पर्वों की रस्म अदायगी

पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी। एक स्वतंत्रता दिवस तो दूसरा गणतंत्र दिवस। यह दोनों ही पर्व इस भारतीय भू- भाग के गैर-धार्मिक, गैर-सांस्कृतिक और गैर-साम्प्रदायिक पर्व हैं। सुविधा के लिए इन्हें राष्ट्रीय पर्व भी कहा जाने लगा है। स्वतंत्रता दिवस 1947 के बाद से तो गणतंत्र दिवस 1950 के बाद से मनाया जाता है। हो सकता है शुरू के कुछ वर्षों से इन्हें उत्सव के रूप में देखने और मनाने वाले उल्लास के साथ देखते-मनाते होंगे। फिर धीरे-धीरे यह उल्लास रूढि में तब्दील होता गया। अब तो लगता है कि रूढि ही रूढि है उल्लास सिरे से ही गायब है। इन रूढियों के पेटे ही प्रतिवर्ष देश में सार्वजनिक धन के अरबों रुपये स्वाह होते हैं।
इन दोनों ही पर्वों पर प्रतिभा सम्मान के नाम पर लम्बी-लम्बी फेहरिस्ते बनती हैं। अब तो उनमें अधिकांश अपात्र ही होते हैं। सब कुछ जानते-बूझते हुए भी, ना सम्मानित करने वालों को शर्म आती है और ना ही सम्मानित होने वालों को ग्लानि। आम आदमी ऐसे कार्यक्रमों को नजरअन्दाज करता है या ठिठक कर देखता भर है। दुखद या कहें चिंतनीय इतना ही है कि हम मीडिया वाले भी ऐसे मामलों में या तोकहारकी भूमिका में होते हैं या मौका मिलते ही स्वयं पालकी पर चढ़ बैठते हैं। इन सब अनर्गल आयोजनों से ऊब निकट भविष्य में पैदा होगी लगता नहीं है। पर छेड़ा या चरम बिन्दु आएगा जरूर।
राजस्थान सरकार ने भी भारत रत्न की तर्ज पर राजस्थान रत्न अलंकरण शुरू किए है, पहली सूचि के नामों की पात्रता मान सकते हैं लेकिन धीरे-धीरे इस का हश्र क्या होगा, अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। राजस्थानी साहित्य के लिए दिए जाने वाले दो प्रतिष्ठित पुरस्कारों--साहित्य अकादमी और बिहारी सम्मान पाने वालों पर नजर डालें तो समझ में जायेगा। अब तो हिन्दी के लिए दिए जाने वाला बिहारी सम्मान भी सवालों के घेरे में आने लगा है। हो सकता है ऐसी स्थिति शायद राजस्थान रत्न अलंकरणों की हो जायेगी।
विनायक पहले भी लिख चुका है कि छोटे-बड़े ऐसे सम्मानों को प्राप्त करने वालों का छिद्रान्वेषण करें तो अधिकांश धर्मच्युत मिलेंगे। उद्योगपति, व्यापारी वे सम्मानित हो रहे हैं जिन्होंने गैर कानूनी तरीकों और करों की चोरी से अर्जित धन को दिखावे मात्र के लिए तथाकथित सेवा में लगा दिया। इसी तरह सरकारी कर्मचारी अध्यापक अधिकांशतः वे ही सम्मानित हो लेते हैं जो या तो जम कर ऊपरी कमाई करते हैं या ड्यूटी पर जाते ही नहीं हैं। ऐसे सम्मानों को जुगाड़ों से अर्जित करने के पीछे का उनका मकसद उनके अचेतन की ग्लानि ही होती होगी। उस ग्लानि को वे इन सम्मानों से सहला भर लेते हैं। लेकिन घावों को सहलाना समाधान है क्या?
17 अगस्त, 2013


No comments: