राजस्थान विधानसभा ने विशेषाधिकार
हनन की दोषी पुलिस अधिकारी रत्ना गुप्ता को तीस दिन के कठोर कारावास की सजा सुनाई है। मीडिया सहित अधिकांश मुखर लोग इस फैसले को ऐतिहासिक बता रहे हैं। दस्तावेजी तौर पर देखा जाय तो ऐतिहासिक है, क्योंकि प्रदेश और विधानसभा गठन के बाद ऐसी नौबत आज तक नहीं आई।
मामला सभी को पता है, कई बार मीडिया में आ चुका है। प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता भी नहीं है कि यह बात इस मुकाम तक पहुंचेगी। विधानसभा के रुख और निर्णय को अड़ियल नहीं कहा जा सकता। उसने रत्ना को पर्याप्त समय औ़र मौका दिया। ऐसी सभी परिस्थितियों
के बाद भी विधानसभा कठोर नहीं होती तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अच्छा संकेत नहीं होता। किसी मुद्दे पर पूरा सदन एक राय हो तो उसे मान मिलना ही चाहिए, बावजूद यह मानते हुए कि सदन में सभी भले नहीं हैं।
रत्ना के पिता का बयान आया है कि उनकी बेटी को ईमानदारी के चलते ही यह ‘हासिल’ हुआ है। हो सकता है रत्ना पुलिस की ‘सामान्य साख के’ विपरीत अर्थ के लेन-देन के मामले में ईमानदार हो। पर ईमानदारी एक आयामी नहीं होती। आप अपनी ड्यूटी के प्रति भी कितने ईमानदार हैं, यह भी देखा जाता है। हो सकता है कि आप अपने तय जॉब चार्ट से सहमत ना हों लेकिन जब आप ड्यूटी पर हैं तो उसका निर्वहन करना ईमानदारी का ही एक तकाजा है, और कुछ अनुचित हो गया तो केवल इस बिना पर कि कुछ ड्यूटीज को आपने मुस्तैदी से निभाया है इसलिए उस अनुचित पर भी अड़े रहें, ऐसा या तो बौद्धिक बेईमानी में आएगा या सनक मानी जाएगी।
30
अगस्त, 2013
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