अपने शहर बीकानेर की एक कैबत है कि ‘कोई मिनख सरम नाख देता है तो उसे समझाना असम्भव होता है।’ ठीक यही वाक्य हम भाजपा के ‘स्वयंभू’ पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी पर भी लागू कर सकते हैं। मोदी इतने शातिर हैं कि वह सबकुछ सोचे-समझे करते हैं, इसीलिए उन्हें अपने किसी किए या करतूत का मलाल नहीं होता। हाल ही के अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों पर जो कुछ कहा, इसका प्रमाण है। मोदी ने गुजरात दंगों में मारे गये लोगों की मौत की तुलना ‘कुत्ते की मौत’ से की है, और उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा कि मैं हिन्दू राष्ट्रवादी हूं? मोदी के इन बयानों के बाद भी कोई मोदी को सन्देह का लाभ दे तो इसमें मोदी का कोई दोष नहीं है। हिन्दू होना और राष्ट्रवादी होना सकारात्मक कहा जा सकता है पर धर्मनिरपेक्ष देश में एक स्वघोषित हिन्दू राष्ट्रवादी को कोई पार्टी या गठबंधन देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद का दावेदार घोषित करती है तो इस के मानी भी स्पष्ट समझे जाने चाहिएं। मोदी अपने बोल और देहभाषा, दोनों से ही यह स्पष्ट सन्देश दे रहे हैं कि अब पार्टी उन्हें नहीं चलाएगी वरन् वे ही पार्टी को चलाएंगे। पार्टी के वर्तमान तथाकथित खेवनहारों ने अपनी अक्षमताएं स्वीकारते हुए यह मान लिया है कि अगर डूबना है ही तो मोदी के हाथों ही क्यों ना डूबा जाय और मोदी यदि पार लंघा देंगे तो थोड़े ‘तर’ वे भी होंगे ही! कोई भी व्यक्ति और समूह अपने को ऐसी परिस्थिति में तभी पाता है जब उसकी स्थिति ‘मरता क्या नहीं करता’ की हो। महंगाई और घोटालों के चलते देश में कांग्रेस से लगभग उकताहट के ऐसे माहौल में भाजपा ने पता नहीं किस आत्मविश्वासहीनता की स्थिति में नरेन्द्र मोदी का अपना पत्ता खोला है। अन्यथा देश में कांग्रेस का प्रमुख विकल्पी दल होने के नाते भाजपा यदि अटलबिहारी वाजपेयी की रीति-नीति और चाल-चलन को अपनाती तो संभावना थी कि वह 2014 में राजग की सरकार बना लेती! हिन्दू कार्ड थोड़ा बहुत चलता भी है तो देश के उत्तर-पश्चिमी राज्यों में ही चलता है--दक्षिणी, पूर्वी और उत्तरपूर्वी राज्यों में इस कार्ड को भाजपा कुछ चला पाएगी, सन्देह है। अलावा इसके कुछ वे क्षेत्रीय पार्टियां जो उनके अपने-अपने क्षेत्रों में कांग्रेस प्रतिस्पर्धी पार्टी है, वे बिना किसी संकोच के राजग के साथ हो लेतीं। अटल बिहारी के प्रधानमंत्री रहने के समय का राजग गठबंधन 24 पार्टियों का था।
13 जुलाई, 2013
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