Saturday, June 8, 2013

गोवा से निसरती आशंकाएं

गोवा में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही है, शुक्रवार को हुर्ई संसदीय बोर्ड की बैठक से ही खेमेबाजी का साया मण्डरा रहा है। शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी और उनमें भरोसा करने वाले कुछ बड़े नेता नहीं पहुंचे, सुषमा स्वराज जैसे कुछ पहुंचे भी तो मुंह फुलाए। तथाकथित आडवाणी खेमा नरेन्द्र मोदी को कमान दिए जाने की आशंका से नाराज है। आडवाणी और उनके समर्थक शायद यह चाहते हैं कि यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि आगामी आम चुनाव में राजग यदि सरकार बनाने की स्थिति में आता है तो प्रधानमंत्री कौन बनेगा। आडवाणी सीधे-सीधे तो यह नहीं कहते कि वे अब भीपीएम इन वेटिंगहैं लेकिन उनके हाव-भाव और कहा-सुना ऐसा ही जाहिर करता है। भाजपा का अधिकांश आम कार्यकर्ता आती सत्ता को देखकर मोदी से बड़ी उम्मीदे बांध बैठा है। इस तरह से विचारने वाले भाजपाई कार्यकर्ताओं की संख्या लगातार बढ़ रही है।
मोदी और उनके समर्थक आज भी गोवा नहीं पहुंचे, हो सकता है भाजपा के बाकी के बड़े नेता सत्ता लोलुपता में आडवाणी खेमे को किनारे कर दें। रविवार को कार्यकारिणी सभा के आखिरी दिन आडवाणी को किसी समारोह में जयपुर आना हैा। इस तरह भाजपा की यह राष्ट्रीय कार्यकारिणी उसके इतिहास में बिना आडवाणी के सम्पन्न हो जाती है तो भाजपा पर तो सत्ताई चकाचौंध में फिलहाल कोई असर नहीं होने वाला पर आडवाणी को ये दिन भी देखने होंगे, ऐसा उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा।
यह तो हुई भाजपा के अन्दरूनी मामले पर बात। लेकिन इसे भाजपा का मात्र अन्दरूनी मामला मान कर नहीं छोड़ा जा सकता है। कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के खिलाफ देश में हवा बनती जा रही है, विकल्प के रूप में बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी ही है। तीसरे मोर्चे का ना तो कोई स्वरूप दिखाई दे रहा है और ना ही इसे लेकर कोई प्रयासरत दीख रहा है। तीसरे मोर्चे की कोई कवायद होती भी है तो गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचलप्रदेश, उत्तराखण्ड और दिल्ली जैसे कई राज्य हैं जहां से लोकसभा की सौ से ज्यादा सीटें हैं वहां इस संभावित तीसरे मोर्चे का कोई खास असर नहीं हैं। कुछ क्षेत्रीय दलों की नजर में कई राष्ट्रीय दल अछूत हैं तो कई बड़े राष्ट्रीय दलों की नजर में कई क्षेत्रीय दल। इसी सबके चलते आगामी लोकसभा का कोई दृश्य उभर कर नहीं रहा है।
भाजपा का बड़ा खेमा इस मानसिकता में है कि नरेन्द्र मोदी को पार्टी की कमान सौंप कर जैसे-तैसे सत्ता हासिल कर ले। यदि ऐसा होता है तो मोदी किसी भी तरह की लगाम पसंद नहीं करेंगे और वे चुनाव जीतने के लिए झूठ, अनैतिक और साम्प्रदायिक हथकंडे अपना सकते हैं। गुजरात में ऐसा करके एक से अधिक बार वे सफल भी हो चुके हैं। भारत का अधिकांश मतदाता तात्कालिक प्रभावों में आकर मतदान करता है। उसकी समझ लोकतांत्रिक मतदाता के रूप में आज भी विकसित नहीं हुई है। भाजपा के आन्तरिक लोकतंत्र का जो होना है वह तो होगा ही, देश की परिस्थितियां पिछली सदी के चौथे दशक के जर्मनी-सी बनती दीख रही है, तब वहां हिटलर का उदय ऐसी सी परिस्थितियों में ही हुआ था, जिसकी बड़ी कीमत जर्मनी और दुनिया के अन्य देशों ने ही नहीं लोकतान्त्रिक मूल्यों ने भी चुकाई थी।
अगर नरेन्द्र मोदी भाजपा के सर्वेसर्वा हो जाते हैं तो इस वर्ष जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने है वहां भाजपा को इसका लाभ और कांग्रेस को नुकसान हो सकता है। इन विधानसभा चुनाव परिणामों में आगामी लोकसभा चुनाव के संभावित परिणामों  की आहट सुन सकते हैं और यह आहट कब खतरे की घण्टी में बदल जायेगी कोई नहीं कह सकता क्योंकि नरेन्द्र मोदी की शैली हिटलर से कोई बहुत भिन्न नहीं है।


8 जून, 2013

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