लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राजनीति महत्त्वपूर्ण है। नीतियों, नियमों से लेकर कानून-कायदे बनाने तक में राजनीति से चुने लोगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भारत के सन्दर्भ में ही बात करें तो सवा सौ करोड़ के इस देश में सभी कुछ इन्हें ही तय करना होता है। पिछले 66 साल से यह कर ही रहे हैं। बहुत कुछ उल्लेखनीय हुआ है तो बहुत कुछ ऐसा भी है जो प्रकृति के लिए, मनुष्यता और मानवीय गरिमा के लिए घातक है। प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग हमने लालच और हवस की हद तक किया, उसका ताजा नतीजा हम हिमालय में भुगत रहे हैं। जिन मोहनदास कर्मचन्द गांधी के नाम पर इन 66 वर्षों में राज चला है उन्हीं गांधी का कथन है कि ‘यह धरती सभी की जरूरतें पूरी कर सकती है, लालच किसी एक का भी नहीं।’ गांधी की सोच के खिलाफ नेहरू ने पश्चिमी विकास का मॉडल अपनाया। बड़े-बड़े बांध बनाए गये, बड़े-बड़े उद्योग लगाए गये। शहरों को तरजीह दी गई। नतीजे किसी से छुपे नहीं हैं। कोई सन्तुष्ट नहीं है, जो धन से बड़े हैं वे इसलिए खुश नहीं है कि उनके लालच पूरे नहीं हो रहे हैं। जिनके पास धन नहीं है वे जीवन-यापन की सामान्य जरूरत के अभाव से असंतुष्ट हैं। ऐसे लोगों की संख्या देश की कुल आबादी की लगभग आधी है।
इस ‘ज्ञान’
को बघारने का कुल जमा मकसद इतना बताना ही है कि संविधान ने देश के प्रत्येक बालिग-नागरिक को ‘वोट’ के रूप में जो ताकत दी है वे उसे पहचानें और उसका सही उपयोग करें। वोट देते समय उम्मीदवार की पात्रता का आकलन जरूरी है। इसके लिए पहले तो खुद मतदाता का निजी आग्रहों से ऊपर उठना जरूरी है। मतदाता पहले तो खुद यह तय करे कि इस चर-अचर जगत के भारतीय भू-भाग में रहने वाले लोगों, जीव-जन्तुओं और प्रकृति के हित कैसे सुरक्षित हो सकते हैं। इस तरह से विचारेंगे तो वोट देते समय भी यह देखेंगे कि इस तरह के हितों का संरक्षक कौन हो सकता है?
कह सकते हैं कि बातें तो यह आदर्श की हैं, पर व्यावहारिक जीवन में संभव नहीं है। ऐसा यदि मान लेते हैं तो फिर स्थितियों में बदलाव संभव भी नहीं है। हम प्रतिदिन बद से बदतर स्थिति की ओर जा रहे हैं। हम जहां पहुंचेंगे उसकी कल्पना मात्र भयावह है।
पिछले 66 वर्षों पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि पहले हमारे जनप्रतिनिधि कैसे थे और अब कैसे होने लगे हैं। अधिकांश नेता भ्रष्ट हैं, अनैतिक कार्यों में लिप्त हैं, यहां तक कि कुछ तो किसी को मारने-मरवाने में भी संकोच नहीं करते। इन्हें सत्ता मिलती है तो अपने और अपनों के हित ही साधते हैं। व्यापक हितों की सोच ही नहीं देखी जाती।
अपना प्रदेश राजस्थान देश के अन्य कई प्रदेशों से शान्त है। लेकिन अब यहां भी आए दिन राष्ट्रीय-क्षेत्रीय पार्टियों की निजी सभाओं में जूतम पैजार के समाचार पढ़ने को मिलने लगे हैं। सत्ता के ‘धनरूप’ ने सेवा का स्थान ले लिया है। मानवीय स्वाभिमान की जगह धन का अहम् काबिज है। इसी धन के बल पर यह नेता अपने वोट बटोरने के सरंजाम जुटा लेते हैं और सत्ता हासिल करके फिर पैसों, जमीनों और उद्योगों जैसे इन्हीं सत्तारूपों की ताकत बढ़ाने में जुट जाते हैं।
यह चुनावी वर्ष हैं, चाहे तो इस बार वोट इन सबसे ऊपर उठ कर ना भी कर पाएं! मगर इस तरह विचारना भी शुरू कर देते हैं तो सकारात्मक बदलाव होगा अन्यथा भविष्य कोई बहुत आश्वस्त करने वाला नहीं है। भरोसा भाग्य पर नहीं मानवीय अनुकूलताओं पर करेंगे तो उस ओर अग्रसर भी होने लगेंगे। अन्यथा हमारी भावी पीढ़ियां या तो रोबोट हो जाएंगी, या हमें कोसेंगी!
25 जून,
2013
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