Friday, June 14, 2013

स्वच्छता या पवित्रता

पवित्रशब्द बहुत भ्रमित करने वाला है। या इसे यूं भी कह सकते हैं कि यह मात्र मन की अवस्था है। सदियों से इस (पवित्र) शब्द ने समाज में ना केवल अनेक पेचीदगियां पैदा की बल्कि मानवीय मूल्यों का हनन भी किया है। मानव समाज के एक छोटे समूह को छोड़ दिया जाय तो आधी आबादी स्त्रियों और दलितों के बड़े समूह का इस शब्द के माध्यम से शोषण और उनकी मानवीय गरिमा का हनन किया जाता रहा है।
मुम्बई के हवाले से एक छोटी-सी खबर है कि एक परिवार ने घरेलू पानी आपूर्ति की पाइप लाइन को इसलिए अलग करवा लिया कि जिस पाइप से उनके घर पानी आता था उसी पाइप से उनके पड़ोस में रहने वाले दूसरे धर्मों के दो परिवारों के घरों का भी कनेकशन था। चूंकि तीनों घरों में एक पाइप से पानी रहा था सो उन्हें ये भ्रम रहने लगा कि उस पाइप से आने वाले पानी से उनका धर्म भ्रष्ट हो रहा है। इस तरह के धर्मभ्रष्टता के भ्रमों के अगर छिलके उतारने शुरू करें तो ऐसे लोगों के लिए अलग-अलग ग्रहों की जरूरत पड़ सकती है। सप्लाई की मेनलाइन से अपना पाइप अलग लेने पर भी उन्हें अब यह भ्रम हो सकता है कि बाकी सभी जगह भी पानी उसी पाइप से जा रहा है। पानी के यह पाइप कितने नालों-गटरों से गुजरते हैं? जिस स्रोत से यह पानी रहा है, चाहे जलाशय हो या नलकूप, वहां के पम्पिंग स्टेशन पर काम करने वालों के जाति-धर्म भी लगे हाथ ऐसे लोगों को पता कर लेना चाहिए।
इसी तरह से मनुष्य अगर सोचने लगेगा तो जीएगा कैसे? इस धरती पर तो जी नहीं सकता, स्वच्छता का ध्यान रखने तक तो बात समझ में आती है।पवित्रशब्द ना केवल अपने को बरगलाता और भरमाता है बल्कि अमानवीय हेकड़ी से भी भर देता है।
आधुनिक समाज में इस पवित्रता शब्द की महत्ता लगभग खत्म होते आए दिन देख सकते हैं। बड़ा अफसर, नेता, धनपति या अन्य कोई दाता अगर दलित, पिछड़ा या दूसरे धर्म का भी है तो लोगबाग उसके यहां खान-पान या दूसरे आमोद-प्रमोद से कतई परहेज नहीं करते हैं। इस तरह के खान-पान के पक्ष में तर्क यह दिया जाने लगा है कि स्वच्छता से रहने वालों के यहां खाया-पीया जा सकता है। इस तरह समस्या पवित्रता की नहीं स्वच्छता की है।
जीवन के लम्बे सफर में कभी-कभार ऐसे अवसर भी आते हैं कि जिन जातिसमूहों ने अपने पवित्र होने का दर्जा बना रखा है, उनका रहन-सहन इतना अस्वच्छ होता है कि वहां की कैसी भी मनवार स्वीकारने की इच्छा नहीं होगी। कई बार यह भी देखने में आया है कि समाज में जिन जातिसमूहों को सामान्यतः अपवित्र माना जाता है, उनके यहां कार्य-कलापों को अचम्भित करने वाली स्वच्छता से अंजाम दिया जाता है।
ऊपर बात शुरू करते वक्त जिक्र किया था कि पवित्रता मात्र मन की अवस्था है, जो है भी तो मन को पवित्र और आस-पास को स्वच्छ रखना ही मिनखपणा है, शेष सब तो ढकोसलों या पाखण्ड की श्रेणी में ही गिने जाएंगे।

14 जून, 2013

2 comments:

maitreyee said...

बहुत अच्छा विषय लिया है
बहुत अच्छा लिखा है ..

maitreyee said...

बहुत अच्छा विषय लिया है
बहुत अच्छा लिखा है ..