Monday, May 27, 2013

माओवादी हिंसा

देश के दक्षिण-पूर्व का एक बड़ा हिस्सा नक्सल प्रभावित है या कहें उग्र माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र में है। यह क्षेत्र लम्बे समय से अशान्त है और सरकारी और माओवादी दोनों की हिंसा का शिकार है। सरकारें कोई भी हो उनकी बदचलनी भी वैश्वीकरण और बाजार तय करने लगा है। वहीं दूसरी ओर इन क्षेत्रों के बाशिंदे अपने तरीके से गुजर-बसर और जीते रहना चाहते हैं, जो उनका हक भी है। सरकारों की नीतियां अब बिनादाएं-बाएंझांके सीधे बाजारों को मुखातिब है। बाजार को जिस तरह भी और जिस भी कीमत पर रोशन बनाए रखने मात्र की जिम्मेदारी सरकारों की प्राथमिकता हो गयी है। आदिवासियों को मूर्ख और बेवकूफ समझा जाने लगा है और खुद को समझदार मानने वाले उन्हें सभ्य बनाने पर तुले हैं।
शनिवार को सुकमा की जिराम घाटी में हुए नरसंहार पर सोशल साइट्स फेसबुक पर घमासान मचा है। बिना आगा-पीछे सोचे हर कोई अपनी बात या भड़ास निकालने पर उतारू है। आदिवासियों की अपनी मंशाएं हैं जो जायज भी हैं और उन्हें बेलैन्स करने में माओवादी कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। आदिवासियों और आदिवासी क्षेत्रों से सम्बन्धित वर्तमान सरकारी नीतियां माओवादियों को उन क्षेत्रों में अनुकूलताएं देने और सहायक की ही बड़ी भूमिका में है।
हिंसा किसी भी तरह की हो या किसी भी प्रयोजन से हो उसे जायज नहीं कहा जा सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि शनिवार की घटना से केन्द्र सरकार और माओवादी-नक्सल प्रभावित सभी राज्यों की सरकारें सबक लेंगी और माओवादियों से निबटने के अपने उपायों की गम्भीरता से समीक्षा करेंगी।
यद्यपि माओवादियों की तुलना कश्मीरी-खालिस्तानी आतंकवादियों से करना गलत होगा लेकिन केन्द्र और सम्बन्धित राज्यों की सरकारों ने इन दोनों समस्याओं को जिस भाव से निबटा या निबटने का प्रयास कर रही हैं, वैसे से भाव की ही जरूरत इन माओवादी-नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की है। इन दोनों ही राज्यों में सरकारों ने हिंसा में विश्वास करने वालों के प्रति आमजन की सहानुभूति लगभग समाप्त करने में सफलता हासिल कर ली थी।


27 मई, 2013

No comments: