राजस्थान विधानसभा चुनावों को अब जबकि आठ महीने भी नहीं बचे तो मौका मानकर राज्य कर्मचारी उद्वेलित हैं। सूबे के वर्तमान मुखिया को उनके इस कार्यकाल में छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीते देख कर कर्मचारियों का हाव और भी खुल गया है। रही सही कसर इन धाए-धापों को अविवेकी सुर्खियां देकर हम मीडिया वाले पूरी कर रहे हैं।
कुछ विसंगतियां हमारे देश में ही संभव हैं, जो परवान पर हैं। कर्मचारियों को छठे वेतन आयोग की तनख्वाहें मिलने लगी हैं, कई कर्मचारी तो यह कहते भी पाए जाते हैं कि सरकार इतना दे रही है कि सभी जरूरतें पूरी होने के बाद कुछ बच ही जाता है। ऐसे कथनों के बावजूद सरकारी कर्मचारी कायदे से काम करते कम ही पाए जाते हैं। समय पर कार्यालय पहुंचने और पूरे समय वहां रुकने वाले कर्मचारी तो कम ही मिलेंगे और इनमें कुछ काम करते भी हैं तो उनमें से अधिकांश ऊपरी लेन-देन के लोभ में ही करते हैं। कुछ दफ्तर तो ऐसे भी हैं जहां के कर्मचारी ले-देकर भी निहाल नहीं करते। इस सबके बावजूद इन्हें छठे वेतन आयोग का लाभ 2006 से चाहिए।
दूसरी ओर वैश्विक बाजार के चलते पनपा कॉर्पोरेट क्षेत्र है। आज के युवाओं की पहली प्राथमिकता बनी इन नौकरियों में ठीक-ठाक पैकेज का लालच देकर दस से बारह घंटे जी-तोड़ काम लिया जाता है, नहीं कोई करे तो हटा कर दूसरे को ले लेते हैं। इस तरह की नौकरियां को शुरू हुए कोई लम्बा समय नहीं हुआ है देखने वाली बात यह होगी यह नौकरियां किस अंजाम तक पहुंचती हैं।
तीसरी ओर छोटी दुकानों-कारखानों में काम करने वाले कर्मचारी हैं। दस से बारह घंटे काम करने के बाद भी इन्हें सरकारी कर्मचारियों और कॉरपोरेट कर्मचारियों की तनख्वाह का छठा-सातवां हिस्सा भी नहीं मिलता। नौकरी की सुरक्षा की बात करें तो कॉरपोरेट कर्मचारियों से भी बदतर स्थिति में हैं ये।
चौथी ओर असंगठित क्षेत्र के वे दिहाड़ी-मजदूर हैं जिन्हें निश्चित वेतन तो दूर की बात, किसी भी प्रकार की सुरक्षा और निश्चिंतता से इनका कोई वास्ता नहीं है। वह तो भला हो सरकार की मनरेगा योजना का जिसके चलते ये मजदूर कुछ मौल-भाव की स्थिति में आ गये और इनकी दिहाड़ी में कुछ इजाफा हो गया। अन्यथा महीने में औसतन पन्द्रह से बीस दिन न्यूनतम वेतन से कम मिलने वाली मजदूरी से ही परिवार का पेट पालना और छत का जुगाड़ करना पड़ता था इन्हें। बच्चों की पढ़ाई और अन्य जरूरतें तो पूरी करना दूर की कौड़ी है इनके लिए! सरकारी नौकरी करने वाले एक मई (मजदूर दिवस) को जो मटरके करते हैं यह मजदूर दिवस इन्हीं चौथी तरह के मजदूरों के लिए ही मनाया जाने लगा था और अब हथिया इन धाए-धापे सरकारी कर्मचारियों ने लिया। इन सरकारी कर्मचारियों में से अधिकांश उन्हें मिलने वाली तनख्वाह का एक-चौथाई हक भी अदा नहीं करते।
विनायक ने पिछले वर्ष एक मई को भी संगठित क्षेत्र के कर्मचारी संगठनों से उम्मीद की थी कि उनका नैतिक दायित्व है कि इन चौथे प्रकार के कर्मचारियों के लिए कुछ करें। पर खुद इनका लालच पूरा हो तब ना! और लालच के बारे में गांधी कह गये हैं-‘पूरी दुनिया के संसाधन सभी की जरूरतें तो पूरी कर सकते हैं, लालच किसी एक का नहीं।’ कल एक मई को भी जो रस्म अदायगी हुई उसे धाए-धापों के मटरके ही कह सकते हैं!
सरकारी कर्मचारियों की इस बिगाड़े के लिए व्यापार और उद्योग जगत् और अन्य खोटे-खरे करवाने वाले नागरिक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। वे इस लालच को छोड़ दें तो भी काफी सुधारा हो सकता है।
2 मई, 2013
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