Wednesday, May 15, 2013

सामंती मानसिकता के शिकार सोहराबुद्दीन


पिछले एक अरसे से विभिन्न टीवी चैनलों में गुजरात टूरिज्म के विज्ञापनों की कई क्लिप्स दिखाई जा रही हैं। इन क्लिप्स में ब्रांड ऐंबैसेडर अमिताभ बच्चन हैं, जिन्हें हर क्लिप्स के अंत में यह कहते दिखाया जाता है किकुछ दिन तो गुजारो गुजरात में गुजरात टूरिज्म के इस बिजनैस प्रोमो पर वैसे तो किसी को एतराज नहीं होना चाहिए लेकिन अमिताभ की जो छवि रही है और 2002 में नरेन्द्र मोदी जिस तरह राजधर्म से च्युत हुए, उसी को लेकर कुछ संवेदनशीलों ने अमिताभ के अनुबन्ध को बेमेल कहा था। इन विज्ञापन क्लिप्स की स्क्रिप्ट और उसका फिल्मांकन इतना शानदार है कि नरेन्द्र मोदी की धूमिल छवि पर यह क्लिप्स कुछ तो पर्दा डालती ही हैं।
दरअस्ल आज यह बात करने का हेतु इसलिए बन गया कि कल ही मुम्बई की अदालत में सोहराबुद्दीन एनकाउंटर में जिन लोगों के खिलाफ चार्जशीट पेश की गई है उन आरोपितों में अमितशाह और गुलाबचन्द कटारिया भी हैं। यह दोनों ही तब गुजरात और राजस्थान के गृहमंत्री थे। आरोप है कि कटारिया ने राजस्थान के एक धन्नासेठ विमल पाटनी का चैन छीनने वाले सोहराबुद्दीन को ठिकाने लगाने कीगुजारिशगुजरात के गृहमंत्री से की। गुजरात के गृहमंत्री अमितशाह ने इसे संभव करवा दिया। उन्होंने अति-आत्मविश्वास में यह कहने में भी संकोच नहीं किया कि आप भी एक सूबे के गृहमंत्री हैं, आप ही इसे अपने यहां अंजाम तक क्यों नहीं पहुंचवा देते? इस मामले के आरोपियों का पक्ष कुछ लोगों द्वारा यह कह कर लिया जा रहा है कि सोहराबुद्दीन खतरनाक किस्म का अपराधी था, मार दिया गया तो इसमें गलत क्या है। कइयों को यह तर्क प्रथमदृष्ट्या तो ठीक लग सकता है लेकिन क्या सभी अपराधियों का लेखा-जोखा इसी तरह निबटाया जाना चाहिए? इस राय से यदि सहमत होते हैं तो इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि फिर अदालतों की जरूरत ही क्या है? इसका काउंटर तर्क यह भी दिया जाता है कि अदालतों की प्रक्रिया इतनी ढीली है कि अधिकांश अपराधी बरी हो जाते हैं। बात यह भी एक हद तक सही लगती है। लेकिन तब क्या अदालतों को सुधारे जाने की जरूरत नहीं! इस सम्बन्ध में एक सामान्य तर्क कई बार दिया जाता है कि शरीर का कोई अंग घायल या निष्क्रिय हो जाता है तो उसे हर सम्भव इलाज से हम दुरुस्त करवाते हैं। क्यों इन अदालतों, कानून और व्यवस्था को दुरुस्त करवाया जाय। इन्हें दुरुस्त करने-करवाने की जिम्मेदारी देश-प्रदेश की संसद और विधानसभाओं की और उनके माध्यम से मंत्रिमंडलों की बनती है। सोहराबुद्दीन के मामले से लगता है कि यह खुद ही पटरी पर नहीं है। अन्यथा कटारिया और अमितशाह के गृहमंत्री होने के नाते जिन पर कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी है वह ही जब कानून का दुरुपयोग करेंगे और न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं करेंगे तो ऐसे में उम्मीद फिर मतदाता पर ही टिकती है कि उसे अब अपने वोट की कीमत समझनी चाहिए, और ऐसे लोगों को चुनना चाहिए जो हर तरह से खरे हों अन्यथा एक वक्त ऐसा भी सकता है कि व्यक्तिगत कारणों के चलते किसी निरपराध को भी एनकाउंटर से सलटाया जा सकता है। ठीक ऐसा ही मामला राजस्थान में दारासिंह एनकाउंटर का है। कहते हैं दारासिंह भी सोहराबुद्दीन की तरह शातिर अपराधी था और आरोप है कि राजस्थान के ही तब के एक-दूसरे मंत्री राजेन्द्रसिंह राठौड़ ने उसका एनकाउंटर करवा कर मरवा दिया।
इन दोनों ही मामलों में दोनों राज्यों के कई आइएएस और स्टेट सेवा के पुलिस अधिकारी वर्षों से हवालात में हैं और इन्होंने जिन के कहने से यह अपराध किया वह केवल अपनी राजनीति कर रहे हैं बल्कि घर का सुख भी भोग रहे हैं। हां, चैन जरूर उनका भी फुर्र है।
सत्ता में आते ही सामंत होने की मानसिकता आजकल कुछ ज्यादा ही हावी होने लगी है। इसी का परिणाम उक्त दोनों एनकाउंटर हैं। गुजरात में 2002 का नरसंहार और 1984 के सिख विरोधी दंगे इसके बड़े उदाहरण हैं और यह भी कि यहसामंतदूसरों को बलि का बकरा बना कर जैसे-तैसे बचने का जुगाड़ भी बिठा लेते हैं। लेकिन इन घटनाओं से यह भी पुष्ट होता है कि इन्हें अंजाम दिलवाते समय यह सामंत इस अति-आत्मविश्वास में तो होते ही हैं कि मामला आया-गया हो जायेगा। इसी अति आत्मविश्वास के चलते कई अन्य सोहराबुद्दीनों और दारासिंहों के एनकाउंटर हुए होंगे जो ना न्यायालय में गये और ना ही चर्चा में आए!
15 मई, 2013

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