Tuesday, May 14, 2013

राहुल गांधी : अंदेशे और उम्मीदें


कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कल बीकानेर में होंगे। यह उनकी दूसरी बीकानेर यात्रा हैं कहने को तो उनकी यात्रा का मकसद पार्टी के विभिन्न स्तर के पदाधिकारियों से आगामी विधानसभा चुनाव के संदर्भ मेंफीडबैकलेना है लेकिन इसके साथ-साथ दो अन्य काम भी सधेंगे। पहला तो इसी बहाने कांग्रेस के जिला ब्लॉक स्तरीय सभी नेता और पदाधिकारी (कार्यकर्ता तो अब किसी पार्टी में रहे ही नहीं हैं!) पार्टी के सन्दर्भ में वार्मअप हो सकते हैं, अन्यथा तो ये सभी हाल फिलहाल अपने-अपने हितों को साधने में लगे हैं। दूसरा काम जो सधेगा, ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह यह कि राहुल गांधी स्वयं इस तरह के आयोजनों के द्वारा एक नेता के रूप में प्रशिक्षण ले रहे हैं। राहुल इसी 19 जून को 43 के हो जाएंगे लेकिन देखा-समझा गया है कि राजनीति समझने की उनकी गति बहुत धीमी है। शायद इच्छा भी नहीं रही होगी। अन्यथा पिता राजीव गांधी की मृत्यु के बाद राजनीति में आने का निर्णय करने में उन्हें 12-13 साल नहीं लगते। जबकि वे पिता की मृत्यु के समय वयस्क (21 वर्ष) हो चुके थे। संजय गांधी की मृत्यु के समय राजीव गांधी 36 के थे, तब उन्होंने मां इन्दिरा गांधी की मनःस्थिति को देख कर अनिच्छा से ही सही, निर्णय करने में ज्यादा देर नहीं लगाई। 1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री जैसे पद की भी जिम्मेदारी सम्हाल ली। हालांकि 40 की उस उम्र में भी राजीव नेबड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही हैजैसे गैर जिम्मेदाराना बयान औरलाल मिर्च के भाव ज्यादा हैं तो किसान हरी मिर्च क्यों बोते हैं।जैसे बचकाने भाषण जरूर दिए थे। लेकिन जरूरत भर को देश, समाज, राजनीति और पार्टी नेताओं को समझने की गति उनकी राहुल से ज्यादा थी।
राहुल की बातों, भाषणों, प्रतिक्रियाओं और हाव-भाव से लगता है कि अभी उन्हें बहुत कुछ सीखना है। राजस्थान में गोपालगढ़ की घटना के बाद उनकी गोपालगढ़ की गुपचुप यात्रा और सूबे की अपनी सरकार के प्रति उनका रवैया उनके परिपक्व ना होने की बानगी है। इस यात्रा के बाद राजस्थान की राजनीति में जो संदेश राहुल के हाव-भाव से आया वह पार्टी हित में नहीं था। यद्यपि अशोक गहलोत भी इस सब से विचलित नहीं देखे गये। उन्होंने उस समय पूरे माहौल को भी और साथ में राहुल गांधी को भी बहुत सधे हुए ढंग से साध लिया था। इसीलिए गहलोत राजस्थान में अब तक के सबसे चतुर और परिपक्व राजनीतिज्ञ के रूप में पहचान बना पाए हैं। अलावा इसके गहलोत की गिनती कांग्रेस के हाल फिलहाल के शीर्ष नेताओं में सबसे सधे हुए राजनेताओं में भी होने लगी है।
गहलोत का यह दूसरा कार्यकाल देश के सभी प्रदेशों में अव्वल इस मानी में भी माना जाने लगा है कि यह प्रदेश सर्वाधिक लोककल्याणकारी, फ्लैगशिप योजनाएं लागू करने वाला हो गया है। रोजगार के क्षेत्र में भी किसी सरकार के एक कार्यकाल में सरकारी नौकरियों की घोषणा करने में भी गहलोत की सरकार अव्वल है। गहलोत की इसी कर्मठता के चलते ही वसुन्धरा राजे 2003 जैसी उम्मीदें नहीं देख पा रही हैं।
इस तरह की सभी बातों को समझने की गति राहुल गांधी की बहुत धीमी है और उसी का नतीजा है कि बिहार, उत्तरप्रदेश और गुजरात में राहुल वो जादू नहीं जगा पाए जिससे हवा का रुख बदल जाए। उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की जीत को राहुल के खाते में भले ही डाला जाए, लेकिन यह सच नहीं है। इन प्रदेशों में कांग्रेस की सरकार बनने में वहां की भाजपा सरकारों से जनता की ऊब और स्थानीय कांग्रेसी नेताओं की मेहनत ही ज्यादा काम आई है। इन सब बातों को राहुल ना समझते हों, ऐसी बात नहीं है। देर से ही सही समझते हैं तभी वे श्रेय लेने के विभिन्न अवसरों पर सहमते और ठिठकते दीखते हैं। लगता यह भी है कि राहुल जिनकी बातों पर भरोसा करते हैं वे सब भी या तो परिपक्व नहीं हैं या फिर उनके अपने स्वार्थ पार्टी से ऊपर हैं।
मध्यप्रदेश के बाद अगले दो दिनों में वह राजस्थान में पार्टी के निचले स्तर के नेताओं से सीधे संवाद करेंगे। बहुत तरह की बातें होगी और इन निचले स्तर के नेताओं की मनःस्थिति, आकांक्षाएं और कुछेक की पीड़ाएं भी मुखर होंगी। इन सबको अलग-अलग समझने को नीर-क्षीर विवेक की जरूरत होती है, जो राहुल में अब तक देखा नहीं गया है। हो सकता है ऐसे कई आयोजनों के बाद यह विवेक उनमें विकसित हो जाए, इसीलिए इस आलेख की शुरुआत में कहा गया है कि इस तरह के कार्यक्रमों से स्वयं राहुल भी प्रशिक्षण ले रहे हैं। देर आयद, दुरुस्त आयद के हिसाब से तो यह सब ठीक है लेकिन 43 की इस उम्र में यह सबकुछ क्या ज्यादा ही देरी से नहीं चल रहा है? क्योंकि जैसी देश की और भाजपा सहित अन्य राजनीतिक पार्टियों की भी स्थितियां हैं, उसके चलते हो सकता है अगले आम चुनाव के बाद कुछ ज्यादा पार्टियों के साथ और कुछ और ज्यादा विचित्र दबावों के साथ कांग्रेस के नेतृत्व में संप्रग-3 ही केन्द्र में सरकार बनाए। वैसी परिस्थितियों में अधिकांश शीर्ष कांग्रेसी विभिन्न कारणों के चलते राहुल को ही प्रधानमंत्री बनाने में सफल हो जाएं तो वह जिम्मेदारी बड़ी ही नहीं बहुत बड़ी चुनौतियों के साथ पेश आएगी, लेकिन क्या तब तक राहुल उसशिव बरातको झेलने में अपने को सक्षम बना पाएंगे!
14 मई, 2013

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