Thursday, April 25, 2013

कुछ शब्द जैसे फांसी, गैंगरेप और घोटाले


मीडिया में अभी जो शब्द सबसे ज्यादा प्रचलित हैं और जिन पर सबसे ज्यादा बहस और चर्चा होती है, वे हैं-फांसी, गैंगरेप, घोटाला। मीडिया ही क्यों संसद का सत्र चल रहा हो तो लोकसभा हो या राज्यसभा, इनमें होने वाली चर्चाओं में भी इन दिनों सर्वाधिक पुनरावृत्ति वाले शब्द यही होते हैं। भाषा हिन्दी होकर संवैधानिक भाषा का दर्जा पाए कोई अन्य भी हो सकती है।
घोटाला शब्द का प्रयोग 2009 में संप्रग-दो की सरकार आने के बाद से जम कर हो रहा है, कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों ही इसका जम कर प्रयोग कर रहे हैं। बल्कि जिन समाजवादियों और वामपंथियों को इस शब्द का प्रयोग करने का वर्षों से या कहें आजादी बाद से ही अभ्यास था वह छूट गया लगता है, समाजवादी तो सभी डिस्टिल्ड वॉटर से होकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व लगभग खत्म करवा चुके हैं और वामपंथियों में-अब वह तेज रहा और तुर्शी। वामपंथियों की ऐसी स्थिति का दीखता कारण तो सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत में लगातार घटता उनका मत प्रतिशत भी हो सकता है।
दुनिया के आधे से भी अधिक देशों में मौत की सजा खत्म कर दिए जाने के बाद भी भारत में यह अमानवीय सजा आज भी जारी है। 2008 के 26/11 के मुम्बई हमले के पकड़े गये एकमात्र मुख्य आरोपी अजमल कसाब को पिछले वर्ष 21 नवम्बर को जब तक फांसी नहीं दी गई तब तक केन्द्र की सरकार को जब तब कठघरे में खड़ा किया जाता रहा। मुम्बई हमला भारत की सम्प्रभुता पर तो हमला था ही इसमें मृतकों की संख्या भी दस हमलावरों सहित 166 थी। बाद इसके 13 दिसम्बर 2001 को देश की संसद पर हुए हमले के एक आरोपी अफजल गुरु को फांसी का बेराग शुरू हो गया और यह तब थमा जब इसी 9 फरवरी को उसे फांसी दे दी गई। कसाब पाकिस्तानी नागरिक था और अफजल गुरु भारतीय। लेकिन इन दोनों को फांसी देने में जोसावधानीबरती गई एक-सी है। दोनों को ही गुपचुप तरीके से फांसियां दी गईं। इसे लेकर भारत सरकार की काफी आलोचना भी हुई। देश में मौत की सजा जब तक बरकरार है, और अदालत के भी फैसले फांसी के ही रहे हैं, राष्ट्रपति भी मौत की सजा जिसकी भी जायज मान लेते हैं तो उसे फांसी दी ही जाएगी। लेकिन जो गुपचुप तरीके से होने लगा है उसे कितना जायज ठहराएंगे? कसाब की बात तो छोड़ देते हैं। क्यों? एक तो वह सीधे रूप में हमलावर था, दूसरा पाकिस्तानी नागरिक। लेकिन अफजल गुरु एक तो सीधे रूप से हमलावर नहीं था, साजिश में शामिल होने के प्रमाण जरूर मिले हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अफजल उसी कश्मीर से था जिन कश्मीरियों का भरोसा हम बड़ी मुश्किलों से जीत पाए हैं। वह भी पूरी तरह से नहीं। ठीक इसी तरह 1993 के दिल्ली में हुए कार बम धमाके के आरोपी देविंदरसिंह भुल्लर का मामला है। इस धमाके में नौ लोगों की मौत हो गई थी। भुल्लर को यद्यपि फांसी की सजा सुना दी गई है और उच्चतम न्यायालय ने उसकी याचिका को भी अस्वीकार कर दिया है। यदि राष्ट्रपति भी दया याचिका अस्वीकार कर देंगे तो भुल्लर को फांसी दे दी जाएगी। ऐसा यदि होता है तो देश अफजल गुरु वाली गलती ही दोहराएगा। अफजल को फांसी के परिणाम देर सबेर कश्मीर के माध्यम से भुगतने पड़ सकते हैं क्योंकि संभावना है कि कश्मीर में शान्ति बहाली के प्रयासों को इससे धक्का लगेगा। ऐसा ही संवेदनशील मामला भुल्लर का भी है। क्योंकि पिछली सदी के आठवें दशक में पंजाब को भयावह स्थितियों से निकालने की देश ने बड़ी कीमतें चुकाई है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को भी फांसी की सर्वाधिक दया याचिका खारिज करने का रिकार्ड बनाने से बचना चाहिए!
गैंगरेप शब्द इतना घिनौना है कि उस पर अब तक जितनी बात इस कॉलम में पहले कर चुके हैं वह ज्यादा ही हैं... उम्मीद रखनी चाहिए कि ऐसे शब्दों पर बार-बार चर्चा करनी पड़े? लेकिन एक चर्चा यहां करना जरूरी लगता है कि बलात्कार की किसी घटनाविशेष पर आमजन के आक्रोश को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं हो सकता। लेकिन यदि राजग के पीएम इन वेटिंगों में से एक सुषमा स्वराज भी कबिलाई फरमानों की तरह बलात्कार के दोषी को फांसी पर चढ़ा देने की बात करती हैं तो चिन्तनीय है। क्योंकि आक्रोश तो विवेक-शिथिलन की स्थिति है और कम से कम जिस शख्स में देश के सर्वोच्च पद के योग्य होने की सम्भावना जताई जा रही है, उसे तो ऐसे शिथिल-विवेकी बयान नहीं देने चाहिएं। क्योंकि कैसी भी स्थितियां हो, देश में कानून भी है और व्यवस्था भी है और यह कानून और व्यवस्था की शीर्ष जिम्मेदारी उसी संसद की है। जिसकी एक सम्मानित सदस्य सुषमा स्वराज भी हैं। सुषमा का ऐसा ही वाणी विचलन राष्ट्रपति के पिछले चुनाव के दौरान भी देखा गया जब उन्होंने उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के बारे में ओछी टिप्पणी की थी।
25 अप्रैल, 2013

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