Tuesday, April 2, 2013

उच्चतम न्यायालय का राहती फैसला


बीसवीं शताब्दी को इस सभ्यता के लिए इसलिए तो महत्त्वपूर्ण कहा ही जा सकता है कि बहुत से ऐसे आविष्कार हुए जिनसे लगभग असाध्य माने जाने वाले अनेक रोगों को साध लिया गया। मनुष्य की औसत उम्र बढ़ गई, प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा की मौतों में चामत्कारिक कमी आई, लेकिन ठीक इसके उलट तकनीक के अंधाधुंध उपयोग से प्रदूषण बढ़ा और इस प्रदूषण से कई बीमारियां विकराल रूप में देखी-भोगी जाने लगी। मृत्युदर में कमी के साथ-साथ प्रति दम्पती सन्तानों पर जो नियन्त्रण होना चाहिए था वह नहीं हो पाया जिससे जनसंख्या विस्फोट के रूप में एक नकारात्मक पक्ष भी सामने आया।
पिछले कुछ वर्षों में कैंसर और एड्स जैसी बीमारियां भयावहता के साथ देखी-भोगी जाने लगी हैं। इन दोनों ही बीमारियों से पूरी तरह छुटकारा अभी तक ढूंढ़ा नहीं गया लेकिन समय रहते चेते तो कैंसर से कुछ या लम्बे समय तक राहत जरूर मिलने लगी है। लेकिन इसकी दवाइयां इतनी महंगी हैं कि वे भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों की आम आवाम के लिए या तो पहुंच के बाहर है या इन दवाइयों तक जैसे-तैसे कोई पहुंच बना भी ले तो अधिकांशत वे परिवार मिनख और धन दोनों से हाथ धो बैठते हैं।
भारत के उच्चतम न्यायालय का कल के फैसले के लागू होने पर कैंसर की एक दवा जो सवालाख रुपये में मिलती थी, अब मात्र आठ हजार रुपयों में मिलने लगेगी। इस फैसले में इस दवा के पेटेंट का दावा करने वाली कम्पनी दावा खारिज कर दिया गया है जिसके चलते केवल पेटेंट के नाम पर ही वह कम्पनी पन्द्रह गुना से ज्यादा वसूल रही थी।
यद्यपि हमारे प्रदेश की सरकार ने पिछले साल से अधिकांश दवाइयों को निशुल्क देने की योजना लागू करके प्रदेश के आम आवाम को बड़ी राहत दी है लेकिन देश के अन्य राज्यों में अभी इस तरह की योजनाएं लागू नहीं हुई। उच्चतम न्यायालय के इस फैसले से हमारे प्रदेश को यह लाभ तो मिलेगा ही कि उन्हें यह दवा अब बहुत कम मूल्य मिलेगी और इस पर खर्च कम होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस फैसले को नजीर मान कर अन्य फैसले भी आएंगे जिनसे ऐसी ही अन्य जीवन रक्षक दवाएं और जीवन रक्षक उपकरणों पर पेटेंट के नाम पर वसूली जाने वाली अंधाधुंध कीमतों पर लगाम लगेगी।
हम इक्कीसवीं सदी में गये हैं। पूरी दुनिया एक गांव में तबदील होने को तत्पर है तो क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ की पहल से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि जीवन रक्षक दवाओं और उपकरणों को केवल पेटेंट जैसे झमेलों से मुक्त किया जाना चाहिए बल्कि इन्हें व्यापारिक मानसिकता से भी मुक्त किया जाना जरूरी है। विश् स्वास्थ्य संगठन के माध्यम से एक वैश्विक योजना आनी चाहिए जिसके माध्यम से पूरी दुनिया में स्वास्थ्य सम्बन्धी सभी तरह की सेवाएं निशुल्क और तत्परता से उपलब्ध हो सकें, ऐसा करना असम्भव नहीं है| यदि अब भी हम यह सम्भव नहीं कर सकते हैं तो हम तो संवेदनशील कहलाने के हकदार हैं और ही सभ्य!
2 अप्रैल, 2013

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