पिछले तीन-चार
दिन से सोने की गत बहुत खराब है, पर कहने भर को ही। कहने भर को
इसलिए कि सोना आज भी अधिकांश के लिए मृगतृष्णा ही है। देश की कुल आबादी के चौथाई भी
सोने के तथाकथित सुख से वंचित हैं। समर्थ और समृद्ध परिवारों की अधिकांश भारतीय महिलाओं
के विलासी शृंगार का प्रतीक सोना ही है, कुछेक उन परिवारों की
महिलाओं को छोड़ दें जो कीमती पत्थरों यथा हीरा, मोती,
माणिक, पन्ना आदि-आदि को
सोने से ऊपर पसंद करती हैं।
लुढका, गिरा-धड़ाम--जैसी सुर्खियां बटोर रहे इस सोने को महत्त्व मनुष्य
ने कब दिया, ठीक-ठाक पता नहीं लेकिन सिन्धु
नदी घाटी सभ्यता के अवशेषों से पता चलता है कि तब की स्त्रियां भी सोने के गहने पहनती
थी। सिन्धु नदी घाटी सभ्यता का काल ईसा से लगभग 2500 साल पहले
का माना गया है यानी अब से लगभग साढ़े चार हजार वर्ष पूर्व भी सोने को महत्त्व दिया
जाने लगा था। इस तरह सोने को सुर्खियां मिलना नई बात नहीं है। सोना पिछले दिनों तब
चर्चा में आया था जब केरल के एक प्राचीन मंदिर के खजाने को अदालत के आदेश पर खोला गया
जिसमें टनों सोना मिला और उस मन्दिर के अन्तिम खजाने को न खोलने की अदालत ने छूट देकर
राज को राज रहने दिया। पर यह तो सभी मानते हैं कि उस अन्तिम खजाने में भी सोना,
हीरे व अन्य जवाहिरात होंगे। पर यह भी हो सकता है उसमें कुछ भी न हो,
पर कीमती धातुओं और पत्थरों के प्रति आकर्षण इसे शायद ही स्वीकार करे।
1975 में लगे आपातकाल में जयपुर के पूर्व शासक परिवार पर पड़े
छापे को लेकर भी बाकाडाका बहुत चली। तब कहा जाता था कि कई-कई
रातों तक कई ट्रक सोना ढोया गया। सोने की नकली ईंटों व बिस्कुट के नाम पर होने वाली
ठगियों के समाचार कभी-कभार अब भी पढ़ने को मिलते हैं।
पिछली सदी के सातवें-आठवें
दशक में कुछ नामी गिरामी तस्कर हुए जो सोने का अवैध आयात करते थे। ऐसे लोग उन लोगों
के हीरो थे जो तुरत-फुरत धनाढ्य होना चाहते थे। तब की कई फिल्मों
में खलनायकों को सोने के अवैध व्यापार में लगा दिखाया जाता था। तब की फिल्मों के एक
खलनायक अजीत का एक संवाद बड़ा ‘लोकप्रिय’ हुआ था, जिसे तब ‘बोल्ड’
कहा गया-‘मुझे दो ही चीजें पसंद हैं, सोना और मोना के साथ सोना।’ मोना उस फिल्म की एक महिला
चरित्र का नाम था जिसे अजीत अपनी सेक्रेटरी बताता है। लेकिन अब-की फिल्मों में ‘बोल्ड’ के मानी
तब से या तो बहुत ऊपर उठ गये हैं या बहुत नीचे गिर गये हैं। इस असमंजस का फैसला पाठक
अपने-अपने हिसाब से कर लें।
ढाले गए सिक्के और छपे
नोटों पर भरोसे की कमी भी सोने के प्रति मुख्य आकर्षण का एक कारण है, सभी
देशों में नोट छापने को अधिकृत बैंकों द्वारा नोट छापे जाने का सम्बन्ध उनके खजाने
में पड़े सोने से बताया जाता है।
कहते हैं 1925 ई. में जो सोना 18-19 रुपये प्रति
दस ग्राम था वह 1970-71 में 180-190 रुपये
हुआ। यानी तब इसके भाव दस गुना 45 साल में बढ़े। लेकिन इसके बाद
सोने के भावों को पंख लग गये। 1970 के भावों को दस गुना होने
में पन्द्रह साल भी नहीं लगे। 1983-84 में सोने के भाव 1800-1900
रुपये प्रति दस ग्राम थे। इसके बाद भावों के दस गुना होने में 25
साल लगे और 2010 में 18-19 हजार रुपये प्रति दस ग्राम हुए। 2010 के बाद तो सोने
के भाव लगभग बेकाबू ही रहे और 2013 तक आते-आते यही भाव रुपये 32000 प्रति दस ग्राम को छूने लगे।
अभी की गिरावट के लिए कहने वाले कह सकते हैं कि जैसे चढ़ा था वैसे गिर रहा है। पर इतना
जरूर है कि सोने के भाव अब भरोसे करने जैसे नहीं है। ज्यो धड़ाम से गिरा है वैसे ही
छलांग से चढ़ भी सकता है।
17 अप्रैल,
2013
1 comment:
सोना खूंटे छुटा सांड है
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