Friday, March 8, 2013

वकील भी हिंसक


वकील अपनी मांगों को लेकर फिर उद्वेलित हैं। सरकार जब विभिन्न समूहों के दबाव में आकर जायज-नाजायज मांगें मानने लगी हैं तो वकीलों की मांगों को वह किस आधार पर नाजायज ठहरा सकेगी। दबाव बना सकने वाला हर समूह जब अपनी बातें मनवाने में सफल हो जाता है तो अब यह मुद्दा ही नहीं रहा कि किसकी मांगें जायज और किसकी नाजायज हैं। कौन कितनी भीड़ इकट्ठी कर सकता है और कौन कितने वोटों को भ्रमित कर इधर-उधर कर सकता है? कौन कितनी हिंसा करवाने में सफल हो सकता है, कौन कितनी सार्वजनिक सेवाओं में बाधा डाल सकता है? जायज के मानक यही मान लिए गये हैं और सरकारें झुकने भी लगी हैं तो कानून के पहरुए वकील भी क्यों इस रास्ते पर चलें। वैसे भी वकील उसी समाज का हिस्सा हैं, जिस समाज के समर्थ समूहों में आए दिन अनर्गल घटता रहता है तो वकीलों से ही क्यों उम्मीद की जाये कि वह अपनी बात शालीनता से रखें| वकील पिछले वर्ष भी हिंसक हुए थे जब जयपुर के पास आपसी कारणों से एक वकील की हत्या हुई थी। बाद में यह साबित हुआ कि वकीलों का आक्रोश नाजायज था। दो दिन से फिर वे हिंसक हैं| तर्क इनका भी यही है कि इसके िबना सुनवाई नहीं है| जरूरत इस बात की है कि शासन और प्रशासन शालीन भाषा को समझना शुरू करे अन्यथा समाज में अधैर्यता और अशालीनता बढ़ेगी ही। लेकिन सरकार को भी हम ही चुन रहे हैं तो फिर शुरुआत कहां से होनी चाहिए| रास्ता लंबा जरूर है पर है यह ही। अन्यथा बर्दाश्त करते रहें।

08 मार्च, 2013

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