Saturday, March 9, 2013

न्यायतंत्र को क्या हो रहा है...


कल दोपहर में नेट पर जब यह खबर देखी गई कि राजस्थान हाईकोर्ट ने जयपुर पुलिस कमिश्नर सहित पुलिस के कई आला अधिकारियों को पन्द्रह दिन के लिए हटाने के आदेश दिये हैं तो हाईकोर्ट जजों की चयन प्रक्रिया पर चिन्ता होने लगी कि ऐसे विवेकी लोग भी हाईकोर्ट जजी तक पहुंचने लगे हैं। यद्यपि शत-प्रतिशत खरा अब न्यायिक क्षेत्र भी नहीं रहा है लेकिन फिर भी उम्मीदें बहुत बाकी हैं। शाम तक यह स्थिति स्पष्ट हुई कि घटनाक्रम की न्यायिक जांच के आदेश दिए गये हैं और यह भी कि जरूरी हो तो जांच के दौरान पुलिस कमिश्नर और एडिशनल डीसीपी को हटाया जा सकता है।
इस आदेश की प्रतिक्रिया पुलिस महकमें में जो हुई उसे भी अच्छा नहीं कहा जा सकता। लेकिन वकील पिछले तीन दिनों से आन्दोलन के जिस तरीके पर उतर आए और हाईकोर्ट के जज भीआंखों की पट्टीखोल कर बात करने लगे तो पुलिस महकमा इससे क्यों चूकता!
बुधवार को विधानसभा के आगे की और गुरुवार को जयपुर कोर्ट-परिसर की घटनाओं की अखबारी रिपोर्टों से स्पष्ट है कि वकीलों ने यह सब सोची-समझी रणनीति के तहत किया है और पुलिस वालों ने भी इन दोनों जगह जिस तरह से उनसे निबटा, उसके अलावा पुलिस के पास कोई अन्य चारा था। इस प्रकरण में जजों ने सिर्फ और सिर्फ पुलिस को कठघरे में खड़ा किया है, वकीलों के आन्दोलन के तरीकों पर उनकी कोई टिप्पणी जानकारी में नहीं आई है। जबकि कई आन्दोलनों में ढंग से निबटने पर पुलिस को फटकार कोर्ट लगाता रहा है। यद्यपि इस सम्बन्ध में हाईकोर्ट का पूरा आदेश पढ़ने में नहीं आया है लेकिन मीडिया के विभिन्न माध्यमों से जितनी भी जानकारियां जुटी वह न्यायतंत्र पर भरोसे की साख के लिए शुभ संकेत नहीं है। और यह भी की सरकारों को चलाने वाले भी इस पर विचार करें कि तात्कालिक राजनीतिक लाभों के लिए दबाव में आने के दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होते हैं। कम से कम लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए तो कतई नहीं।
09 मार्च, 2013

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