कल शाम शहर में एक धरपकड़ हुई। जिले के रावला थानाधिकारी ही भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो द्वारा धरे गये। पकड़े जाने से पहले थानाधिकारी ने पूगल रोड रेलवे फाटक से लेकर नयाशहर इलाके तक बचने की ताबड़तोड़ कोशिश की। नौकरी बचाने की उनकी इस तड़फा-तोड़ी में उनकी कार से कई मूक और मुखर चोटिल भी हुए। जैसा कि होता आया है कि वह थानाधिकारी साम दाम-दण्ड भेद से नौकरी तो बचा सकते हैं लेकिन ईदगाहबारी के आस-पास जब-जब कुछ अच्छा-बुरा घटित होता है तब-तब गंगा-जमुनी संस्कृति का कुछ शहरियों का दावा यहां के अखबारों में हांफने लगता है। शहर के ‘छोटे-बड़े’ अखबारों ने हमेशा की तरह फिर उक्त खबर में भी ईदगाहबारी को धर्मनगरद्वार
लिखा है। लोकतन्त्र के चौथे खम्भे के ये पहरुवे यह भूल जाते हैं कि उनकी इस सायास-अनायास हरकत से किसी धर्म-समूह के आत्म-सम्मान को धक्का लग सकता है। उनमें से जो संवेदनशील हैं और घर-परिवार से इतर भी जानने-समझने लगे हैं उनको तो जरूर बुरा लगता है। लेकिन चूंकि वे अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं अतः मन मसोस कर रह जाते हैं। बड़े मन के संस्कार यदि न पड़े हों तो इसी तरह की छोटी-छोटी बातें एकत्र होकर घृणा का रूप लेती हैं।
इतिहास में जाएं तो कोई सवा पांच सौ साल पहले बसे इस शहर में हिन्दू और मुसलमान शुरू से ही साथ-साथ बसे हैं। खान-पान और धर्म-संस्कार अलग होते हुए भी इनके रहन-सहन और सामाजिक रीति-रिवाजों में बहुत समानता मिलेगी और यह भी कि इन दोनों ही समुदायों के शहरपनाह (परकोटा या फसील) के भीतरी मुहल्ले अब लगभग गुत्थमगुत्था
हैं। कुछ परिवारों में आज भी आपसदारी खून के रिश्तों से ज्यादा देखी जा सकती है। पुराने परकोटे (जिसे स्थानीय बोली में कुछ लोग सफील भी कहते हैं) की हमालों की बारी, सोढ़ा/उस्ता बारी, कसाइयों की बारी जैसे नामकरण मुसलमानों की सम्मानपूर्वक सह-रिहाइश के प्रमाण हैं| 1899 ईस्वी में जब छपने (वि.सं. 1956) का अकाल पड़ा तो रोजगार देने और बढ़ते शहर को समायोजित करने को नत्थूसर दरवाजे के बाद से कसाइयों की बारी बीच के परकोटे को हटा कर शहरपनाह को बढ़ाया गया। इस बढ़ाये गये शहर को आज भी नयाशहर कहा जाता है। लगभग 110 वर्ष पहले विस्तारित इस परकोटे के साथ ही ईदगाहबारी, जस्सूसर दरवाजा व पाबूबारी बने थे।
पिछली सदी के आठवें दशक के उत्तरार्द्ध
में पुरी की गोवर्धनपीठ के शंकराचार्य निरंजनदेव तीर्थ ने किसी धार्मिक आयोजन के सिलसिले में बीकानेर में कई दिनों का प्रवास किया था। आयोजन स्थल था पुष्करणा स्टेडियम। स्टेडियम में शामियाने लगा कर पंडाल सजाया गया था। इस अस्थाई व्यवस्था को तब ‘धर्मनगर’ नाम दिया गया था। आयोजन के प्रचार-प्रसार में आयोजन स्थल का पता ‘ईदगाहबारी के बाहर’ देना आयोजकों में से कुछ संकीर्ण मानसिकता वालों को रास नहीं आया होगा, सो उन्होंने ईदगाह बारी को धर्मनगरद्वार
के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया। किसी अति उत्साही ने तो तभी ‘धर्मनगरद्वार’ का नामपट्ट लिखवाकर ईदगाहबारी के ललाट पर ठोक दिया। उल्लेखनीय है कि तब के इस पूरे आयोजन में आज के बड़े कांग्रेसी नेता डॉ. बी.डी. कल्ला की सक्रिय भागीदारी थी, हालांकि तब वे आज की तरह सक्रिय राजनीति में नहीं हुआ करते थे। उस आयोजन को लगभग पैंतीस वर्ष हो रहे हैं। शामियानों का बना ‘धर्मनगर’ आयोजन के तुरन्त बाद कब का उठ चुका है, पुष्करणा स्टेडियम का रूप-स्वरूप बदल गया है, व्यावसायिक उपयोग होने लगा। फिर भी स्टेडियम का नाम आज भी धर्मनगर नहीं पुष्करणा स्टेडियम ही है। ईदगाहबारी के आस-पास किसी बसावट का नाम आज भी धर्मनगर नहीं है। अब कोई हेकड़ दावेदारी के चलते अपने किसी मुहल्ले का नाम बदल ले तो बात अलग है। लेकिन वर्ष में दो बार ईद पर ईदगाहबारी के बाहर स्थित ईदगाह में अब भी नमाज अदा की जाती है। इसके बावजूद हमारे शहर के पत्रकार बंधु पता नहीं क्यों कुछ संकीर्ण धार्मिक मानसिकता वालों की हेकड़ी को पोषण देने में लगे हैं?
ऐसे ही कुछ पत्रकारों को महात्मा गांधी के आगे इंग्लैण्ड के शासक किंग एडवर्ड (जिन्होंने सैकड़ों वर्षो तक इस भारतीय भू-भाग को न केवल गुलाम रखा बल्कि हर तरह से इसका शोषण भी किया) ज्यादा महत्त्वपूर्ण
लगते हैं। तभी आजादी के पैंसठ साल बाद खबरों में महात्मागांधी रोड को केईएम रोड लिखने से बाज नहीं आते। वे भूल जाते हैं कि पत्रकारिता के पेशे का अस्तित्व बिना आजादी या बिना शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के संभव नहीं है।
22 फरवरी
2013
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