Wednesday, February 20, 2013

फिर सुर्खियों में है सादुल स्पोर्ट्स स्कूल


पिछले एक अरसे से बीकानेर का सादुल स्पोर्ट्स स्कूल सुर्खियों में है। प्रदेश का यह एकमात्र स्पोटर्स स्कूल सुर्खियों में इसलिए नहीं है कि इसके छात्रों ने प्रदेश या राष्ट्र स्तरीय खेलों में कोई उपलब्धि हासिल की है, वह तो प्रदेश की अन्तर्विद्यालयी खेल प्रतियोगिताओं में भी यहां के छात्र कभी-कभार ही कुछ कर दिखा पाते हैं। सुर्खियां तो अभी यह इसलिए बटोर रहा है कि एक तो इसके पुराने स्वरूप सादुल पब्लिक स्कूल के छात्र प्रतिवर्ष एक कार्यक्रम आयोजित करने लगे हैं। इस बहाने वह अपने विद्यार्थी जीवन की यादों को ताजा कर लेते हैं। इकट्ठा होते हैं तो कुछ स्कूल की वर्तमान स्थितियों पर चिन्ता-चिन्तन की रस्म अदायगी कर लेते हैं। कोई सक्षम कुछ करने की घोषणा भी कर देता है तो कुछ पहुंच वाले सरकार से कुछ करवा देने की आश्वस्ति दे देते हैं!
सरकारी स्कूल है सो चलेगा अपने ढर्रे पर ही। जब से यह स्कूल स्पोटर्स स्कूल में तबदील हुआ है तब से अब तक सार्वजनिक धन का करोड़ों रुपया इस पर खर्च हो गया होगा और हो भी रहा है। पिछले पैंतीस वर्षों में यहां के छात्रों में से किसी एक का भी नाम नहीं गिनाया जा सकता जिसने राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर तो क्या प्रदेश स्तर पर भी कुछ धन-धन कर के दिखाया हो। हां, बजट इतना है कि उसे बरतने वाले जरूर मालामाल होते गये हैं।
आज फिर समाचार है कि इस स्कूल में अन्तरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए पन्द्रह करोड़ रुपये की योजना तैयार की गई है, जिसे स्वीकृति के लिए राज्य सरकार को भेजा जा रहा है। उम्मीद है इस चुनावी वर्ष में इसे स्वीकार भी कर लिया जायेगा। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के दिये फार्मूले से बात करें तो कुल पन्द्रह करोड़ के इस बजट में से सही मायनों यदि पन्द्रह प्रतिशत खर्च होता है तो यह राशि सवा दो करोड़ रुपये बनती है। शेष पौने तेरह करोड़ रुपयों का क्या होगा? वह तो यदि राजीव गांधी होते तो शायद बता पाते। शहर कीबाका-डाकयापाटा- हथाईमें कहा यही जाता है कि यह योजनाएं किसी सार्थक काम के लिए नहीं बनती है, ‘चूरमाबनाने के लिए ही बनाई जाती हैं!!
अन्यथा इस स्कूल का कोई सचमुच कुछ सुधारा करना चाहे तो उनके लिए विनायक ने 13 मार्च, 2012 के अपने सम्पादकीयएल्युमनी के बहाने सादुल स्पोर्ट्स स्कूलका एक अंश यहां पुनः प्रस्तुत कर रहे हैं-
उक्त सब लिखने के मानी केवल भुंडाना मात्र नहीं है। इन एल्युमनी एसोसिएशनों को सुझाव देना भर है कि केवल बिल्डिंगों को, मैदानों को ठीक करवाने से या इधर-उधर से फंड उपलब्ध करवाने मात्र से इन संस्थानों की दशा सुधरने वाली नहीं है। जरूरत है ठकुरसुहाती छोड़ कर वहां के अध्यापकों की, खेल प्रशिक्षकों की और अन्य कर्मचारियों की मंशा बदलने की है ताकि वे अपनी ड्यूटी को, अपने धर्म को निभायें और यह भी कि किसी भी तरह की फैकल्टी और स्टाफ की यदि कमी है तो प्रदेश से ड्यूटी-फुल लोगों को चुन कर लगवाने के प्रयास कर इस संस्थान को पूर्णता प्रदान करें।
20 फरवरी 2013

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