Thursday, February 14, 2013

नाबालिगों में बढ़ते अपराध


गली-मुहल्ले, चौक, चौपाल में बच्चों या किशोरों के सामने अनर्गल या अश्लील बात करने वाले को जब टोका जाता है तो उसका एक जवाब यह भी होता है यह सब सीखने के लिए कोई स्कूल-पोशाळ थोड़े ही है, बच्चे-किशोर इसी तरह सीखते हैं। इस कहे में कितना गलत और कितना सही है, बिना बानगी के नहीं कहा जा सकता पर इतना तो सही है कि बढ़ते बाल और किशोर अपराधों के लिए जिम्मेदार वे लोग भी हैं जो अपनी अधूरी बीमार आकांक्षाओं को पूरा या उनका पोषण इन बच्चों-किशोरों के माध्यम से करते हैं।
पिछले दिसम्बर के कुख्यात दिल्ली गैंगरेप हादसे में जिस छठे ने सर्वाधिक नृशंसता की वह नाबालिग है और केवल इस बिना पर उसे कठोर सजा से बचने का कानूनन हक मिल गया है। जबकि इस तरह की बाल-किशोर अपराध की घटनाएं होती रही हैं और उनकी खबरें भी हमेशा लगती रही हैं। फर्क सिर्फ इतना ही आया है कि उक्त घटना के बाद इस तरह के हादसों के प्रति पाठक-मन सचेत भर हुआ है और विशेष प्रकार की यह चेतना अन्य किसी प्रकार के बड़े हादसे के बाद या समय गुजरने के बाद धीरे-धीरे अचेतन में चली जाती है।
जिले के दासौड़ी में कल एक मामला हुआ है जिसमें दो नाबालिग भाइयों ने मिल कर एक अन्य किशोर की गोली मार कर हत्या कर दी। दोषियों में एक मात्र 10 वर्ष का और दूसरा 12 वर्ष का। कहा जा रहा है कि इन बच्चों के पिताओं में अनबन थी और दोषी बच्चों के पिता ने बड़े सोचे-समझे तरीके से दुश्मनी निकालने के लिए अपने बच्चों को उकसाकर दूसरे के बच्चे को मरवा दिया। दिल्ली गैंगरेप का छठा दोषी अठारह वर्ष का नहीं था तो कहा जा रहा है कि कानूनी प्रावधानों के चलते  वह मई-जून तक सभी सजाओं से मुक्त हो जायेगा। इस तरह की चर्चाएं टीवी-अखबारों में आईं। हो सकता है कि बहुत से शैतानी दिमाग इस तरह भी सक्रिय हुए हों और इसी से दुष्प्रेरित होकर दासौड़ी गांव के उस पिता ने अपने बच्चों से इतना बड़ा अपराध करवा लिया है?
दिल्ली गैंगरेप की घटना के बाद यह चर्चा जोरों पर थी कि नाबालिग होने की उम्र अठारह  से घटा कर सोलह कर दी जाय। तो फिर दासौड़ी की इस घटना के बाद क्या अब यह कहा जायेगा कि नाबालिग की उम्र नौ वर्ष कर दी जाय क्योंकि इस हत्याकांड में नामजद बच्चा 10 साल का ही है। इन घटनाओं के मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि कानूनी प्रावधान एक हद तक ही असरकारक होते हैं। शेष तो आपके समाज पर निर्भर करता है कि वह किस मानसिकता में जी रहा है या किस मानसिकता की ओर अग्रसर है। इसलिए यह जरूरी है कि समाज में अच्छी बातों की प्रतिष्ठा हो, विवेक का उपयोग हो।
लगातार हमारी प्राथमिकताएं बदलती जा रही हैं, समय से पहले बहुत कुछ हासिल करने की हवस दरिन्दगी के लिए ही जगह बनाती है। पता है इस हवसी युग में इस तरह की बातें सुनने का अवकाश भी जब अधिकांश के पास नहीं है तो इन पर मनन और अमल करने की उम्मीद तो बेमानी है? उम्मीद बस इतनी ही कर सकते हैं कि इस तरह की घटनाओं की बारम्बारता हमें संवेदनशून्य कर दे।
14 फरवरी 2013

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