Wednesday, February 13, 2013

गोचर-गोप्रेम और विकास?


ड्राईपोर्ट के बहाने गोचर और गोचर प्रेमी फिर सुर्खियों में हैं। जीवन में गाय की महत्ता को लेकर दो राय नहीं हो सकती, खासकर भारतीय जीवन में जहां जरूरत के अलावा भी गाय के अन्य कई मानी हैं। हमारे यहां गाय को धर्म या पुण्य का बड़ा माध्यम भी माना गया है। इसी के चलते गायों के चरने के वास्ते रिहाइश के आस-पास गोचर-ओरण की परम्परा रही है| लेकिन अब विकास का आदर्श बदलने और जनसंख्या में विस्फोटक बढोतरी के बाद केवल शहरों का बल्कि गांवों का प्रसार भी गोचर-ओरण तक होने लगा है। इन्हें सुरक्षित रखने के राज के दिए लिखित वचन के भंग होने की आवृति भी बढ़ने लगी है। वचन चाहे किसी राज ने दिये हों पर राज करने वाले बदल जाने के बावजूद राज का दिया लिखित शाश्वत रहता है। अतः वचन चाहे सौ साल पहले दिया गया हो या तीन सौ साल पहले, उसे निभाने का कर्तव्य तात्कालिक राज का ही होगा।
अब जब गोचर संरक्षण का वचन लगातार भंग होने की घटनाएं सामने रही हैं वैसे-वैसे दुर्लभ किस्म के कुछ गोचर प्रेमी दुःखी होते हैं तो कुछ विरोध में आवाज उठाते हैं। न्यायालय इनके साथ होने के बावजूद ऐसों की आवाज पर राज कान नहीं देता, ऐसा अकसर देखने में आता है। पर इनकी आवाज को बल तब जरूर मिल जाता है जब कुछ निहित स्वार्थी या भूमाफिया किस्म के लोग अपने लाभ के या किसी से आंटा काढ़ने की अपनी बायड़ के चलते इनके साथ हो लेते हैं। निर्मल मन के ये गोचर प्रेमी नक्कारखाने में तूती बनी अपनी आवाज को भोंपू मिलने के लोभ में ऐसे लोगों का सहयोग स्वीकार भी कर लेते हैं। फिर जैसा अकसर होता है कि ये भोंपू बने स्वार्थी अपना उल्लू सीधा कर किनारे हो लेते हैं और गोचर-प्रेमियों की तूती-तूती ही रह जाती है। पिछले लम्बे समय से ऐसा ही देखा-समझा जाता रहा है। वह चाहे गोचर के नाम पर देवीसिंह भाटी का रिंगरोड का विरोध हो या हाल ही का ड्राईपोर्ट का विरोध।
यदि विकास का शहरी आदर्श और आदर्श को हासिल करने के भ्रष्ट जरीये अपना लिये हैं तो शहर की नजदीकी गोचर-ओरण सुरक्षित रहनी असंभव सी है। अब यह कहने भर से काम इसलिए नहीं चलेगा कि शहरी विकास का आदर्श हमने नहीं अपनाया या हम भ्रष्ट नहीं हैं। कुछ मुखर लोगों ने यदि इन्हें अपना लिया और कुछ इन कामों में उनके सहयोगी हो लिये, शेष सभी असहमत होते हुए भी चुप रहे तोकवि दिनकरकी भाषा में उन्हें अपराधी भले ही कहें पर इस व्यवस्था या विकास के अच्छे-बुरे परिणामों का भागीदार होने से वे बच नहीं सकते।
अगर कोई सचमुच गोचर रक्षक हैं तो उन्हें राज से ऐसी व्यवस्था करवानी चाहिए कि अन्य उपयोग के लिए ली जानी वाली गोचर की एवज में उतनी ही भूमि पहले गोचर के लिए संरक्षित करवाने के नियम-कायदे बन जायें| अन्यथा धीरे-धीरे यह गोचर खुर्द-बुर्द हो जायेगी, बाद इसके गोचर भी बचेगी नहीं और रिंगरोड और ड्राईपोर्ट आदि-आदि बनने की गुंजाइश हम पहले ही खत्म कर चुके होंगे।
वैसे गोचर-ओरण की अवधारणा तब की है जब गाय का दूध बेचना अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन अब जब इंजेक्शन लगा कर खून आने तक दूध को निकाला और बेचा जाता है, बछड़े को थन के पास फटकने तक नहीं दिया जाता, गाय को दुह कर गंद और प्लास्टिक थैलियां खाने को आवारा छोड़ दिया जाता है तो गाय के प्रति वह परम्परागत भाव अब रहा कितना है? कुछेक भले लोग भी होंगे पर कुछेक से होगा क्या!!
13 फरवरी 2013

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