Saturday, January 5, 2013

मोहन भागवत का बयान


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली बलात्कार कांड पर करीब बीस दिन बाद प्रतिक्रिया दी है। उनका कहना है कि दुष्कर्म और यौन अपराध शहरों में ही होते हैं, गांवों में नहीं। कल सिल्चर (असम) में जब से उन्होंने यह बयान दिया है, तब से ही इस बयान की छिछालेदारी हो रही है। भारतीय संस्कृति की झंडाबरदारी करने वाले संघ के इन प्रमुख ने अपनी भारतीय समझ का आपा पहले भी दिया है।
लगता है संघ प्रमुख की गांवों की असलियत से वाकफियत नहीं है, और यह भी कि उन्हें भारतीय सामाजिक ताने-बाने की भी समझ नहीं है। अन्यथा वे ऐसा बयान नहीं देते। भारतीय समाज उच्चवर्गीय या जातीय प्रभावी समाज है। इस भारतीय समाज में उच्चवर्गीय समाज के पुरुषों के अलावा खुद उनके समाज की स्त्रियां और पिछड़े दलित समाज के लोग आज भी दूसरे-तीसरे दर्जे की नागरिकता में जीने को मजबूर हैं। पिछड़े और दलित वर्ग की स्त्रियां तो अपने दर्जे से एक दर्जा और नीचे जीने को मजबूर होती हैं। आप यदि कुछ अपवादों को उदाहरण के रूप में पेश करेंगे तो वह इस स्थापना की ही पुष्टि करेंगे। भागवत के बयान से ठीक उलट इन वर्गों की शहरी स्त्रियों की दशा गांवों की इन वर्गों की स्त्रियों से कुछ ठीक ही मिलेगी। क्योंकि शहरों में कानून और व्यवस्था को लेकर थोड़ी-बहुत जागरूकता है। गांवों में आए दिन स्त्रियों के साथ ऐसी दुर्घटनाएं और अत्याचार होते हैं। पहली बात तो यह कि स्त्री इस स्थिति में ही नहीं होती कि वह अपने साथ घटे को किसी से कहे, क्योंकि उसे लगता है कि इससे उसकी परेशानियां बढ़ेंगी ही। यदि वह हिम्मत भी कर लेती है तो घरवाले कह देते हैं कि गांव में रहना है तो यह सब बर्दाश्त करना होगा और फिर घरवाले किसी जोश में थाने जाने को तैयार भी हो जाते हैं तो थाना प्रभावशालियों के खिलाफ कुछ भी दर्ज करने को तैयार नहीं होता है।
हालांकि शहरी और ग्रामीण इलाकों के आधार पर यौन उत्पीड़न के मामलों के आंकडे़ उपलब्ध नहीं हैं। पर एक अध्ययन के अनुसार पिछले 25 सालों में बलात्कार के जितने मामलों में सजा हुई है, उनमें 75 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों से संबंधित थे। यह तो तब है जब विभिन्न कारणों से गांवों में यौन उत्पीड़न के अधिकांश मामले दर्ज ही नहीं होते।
भागवत साहब पता नहीं किस दुनिया में रहते हैं! एक बहुत बड़े संगठन के मुखिया हैं। उन्हें यदि कुछ अता-पता नहीं है तो चुप रह कर ही कार्यकाल पूरा कर लेना चाहिए।
राष्ट्रीयता, स्वदेशी और समाज के बारे में ज्यादा गम्भीरता से संघ की बातों को इसलिए भी नहीं लिया जाता कि इन मुद्दों पर उनकी समझ भ्रमित मानी जाती है। संघ में कोई तर्क-वितर्क करता भी है तो उसे हाशिए पर बिठा दिया जाता है या फिर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, और कुछ ज्यादा समझदार हो तो वह खुद ही बाहर हो लेता है। अनुशासन के नाम पर सोचने-विचारने की समझ को भोथरा कर दिया जाता है। इसी का परिणाम है कि इनके प्रमुख तक इस तरह के बयान दे देते हैं।
5 जनवरी, 2013

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