Thursday, December 6, 2012

रेल समस्याएं और डॉ. बीडी कल्ला


डॉ. बीडी कल्ला के हवाले से एक खबर सुबह के सभी अखबारों में लगी है। कल वेबीकानेर जिला उद्योग- संघके एक प्रतिनिधि-मंडल का नेतृत्व करते हुए मंडलरेल प्रबन्धक के कार्यालय पहुंचे और डीआरएम मंजू गुप्ता को एक ज्ञापन सौंपा जिसमें मांग की गई है कि बीकानेर से चलने और गुजरने वाली गाड़ियों में से कुछ का मार्ग बदला जाए, कुछ के फेरे बढ़ाये जाएं, कुछ का समय कम किया जाए और अलावा इसके कुछ नई गाड़ियों को शुरू करवाने की भी मांग की गई है। इन में से एक भी मांग ऐसी नहीं है जो नई हो। कुछ तो ऐसी हैं कि दशकों से लम्बित हैं जैसे बीकानेर-जयपुर सुपरफास्ट इंटरसिटी का समय और ढर्रा, दोनों को सुधारने की मांग है। यह इंटरसिटी बीकानेर स्टेशन से निकलते ही रेलवे के जोधपुर मंडल के दुराग्रह की शिकार हो जाती है। क्योंकि, लगभग इसी गाड़ी के रवानगी समय ही जोधपुर से जयपुर के लिए निकलने वाली इंटरसिटी को उन्हें सुपरफास्ट बनाये रखना है, अन्यथा न्याय की बात तो यह होती कि मेड़तारोड के बाद के सभी स्टेशनों पर केवल बीकानेर वाली गाड़ी के ठहराव ही नहीं रखे जाते, आधे स्टेशनों पर यह ठहराव वहां के यात्रियों की सुविधा के लिए जोधपुर वाली गाड़ी को दिये जाते। अलावा इसके मेड़तारोड बाइपास बने सालों बीत गये हैं लेकिन अभी तक बीकानेर सुपरफास्ट इंटरसिटी को उससे होकर गुजरने के लिए टाइम टेबल को रिशिड्यूल नहीं किया गया है, केवल इस रिशिड्यूलिंग से ही पैंतीस से पैंतालीस मिनट का समय कम हो सकता है। खैर हमारे इधर कहावत है किबीन रै मुण्डै सूं लाल्यां पड़े तो जानी बिचारा काईं करें। हमारे नेताओं और जनप्रतिनिधियों में दृष्टि है और ही दृढ़ इच्छाशक्ति कि वे ऐसा कुछ होने दें और कुछ गड़बड़ हो गई है तो दुरुस्त करवा लें।
कल डीआरएम को ज्ञापन देने पहुंचने वाले हमारे शहर के नेता डॉ. बीडी कल्ला अकसर अपनी अहमियत और अहम् का प्रदर्शन करते दिखाई देते हैं लेकिन उन्हें शायद यह नहीं पता कि यह प्रदर्शन कहां, कब और किसके आगे करना है। पद के हिसाब से वे राज्य वित्त आयोग के अध्यक्ष हैं, कैबीनेट मंत्री का दर्जा मिला हुआ है। जिस तरह का प्रदर्शन वे करते रहे हैं उसके हिसाब से उनका बीकानेर व्यापार उद्योगमण्डल से सम्बद्ध एक छोटे समूह संघ का नेतृत्व बोदी मांगों के साथ करना ही नहीं चाहिए और वह भी मण्डल स्तरीय एक अधिकारी के सामने। वे अकसर अपने जिस स्टेट्स का प्रदर्शन करते रहते हैं उस हिसाब से तो उन्हें रेलवेबोर्ड के अध्यक्ष से कम के अधिकारी के सामने हाथ फैलाना ही नहीं चाहिए था। उनका स्टेटस प्रदर्शन आज से नहीं है, उनमें यह प्रवृत्ति सत्ता हासिल होते ही गई थी। पिछली सदी के नवें दशक में कल्ला राज्यमंत्री बने-बने ही थे, सिविल लाइन स्थित उनके घर का वाकया है। उनके किसी साथी उपमंत्री का फोन था। पीए ने बिना उपमंत्री को लाइन पर लिए फोन कल्ला को ट्रांसफर कर दिया। फिर क्या था, दृश्य देखने लायक था, बेचारे पीए पर पिल पड़े कि तुम्हें प्राेटोकोल का ज्ञान नहीं है, उपमंत्री को बिना लाइन पर लिए फोन ट्रांसफर ही क्यों किया। मानते हैं प्रोटोकोल या मसविदे के हिसाब पीए की गलती थी लेकिन इसे प्रेम से भी समझाया जा सकता था।
यह उदाहरण प्रत्यक्ष देखा तो जिक्र कर दिया। वैसे डॉ. कल्ला को लेकर ऐसी घटनाएं सुनी तो सैकड़ों हैं। शायद इसीलिए डॉ. कल्ला को शासन में और ही प्रशासन में कोई गम्भीरता से लेता है। नहीं तो जिन समस्याओं के लिए डॉ. कल्ला कल डीआरएम के यहां गये थे वे सभी वे अपने व्यावहारिक चातुर्य से कभी भी हल करवा सकते थे। वरिष्ठों में अशोक गहलोत से और कनिष्ठ में सचिन पायलट से ऐसी कुव्वत सीखने में हर्ज ही क्या है! इसीलिए डॉ. बीडी कल्ला और उनके अग्रज जनार्दन कल्ला दोनों को कुछ नजदीक से जाननेवालो में से कुछ अब यह मानने लगे हैं कि शहर के लिए व्यवहारकुशल होने के चलते जनार्दन कल्ला बीडी कल्ला से ज्यादा अच्छे जनप्रतिनिधि साबित होते।
6 दिसम्बर, 2012

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