Wednesday, December 5, 2012

जान की अहमियत सबकी बराबर है


साधु-सन्तों और ज्ञान बांटने वालों को छोड़ दें तो लोक में मौत पर बात करने से सामान्यतः संकोच ही किया जाता है। चालीस से कम उम्र की मौत पर विधाता को कोसा या उलाहना दिया जाता है। सेवानिवृत्ति की उम्र साठ से पहले की मौत को असमय की मौत और साठ से नब्बे के बीच की उम्र में मौत पर मृतक के स्वस्थ जीवन पर यह कहकर तसल्ली की जाती है किचलता-फिरता था’, कुछ दिन बस्ती और रह जाती तो अच्छा था। लम्बी अस्वस्थता के बाद चले जाने पर कहा जाता हैअच्छा हुआ बहुत तकलीफ पा रहे थे।नब्बे के बाद की मौत पर सामान्यतः मातम नहीं मनाया जाता बल्कि कइयों को अन्तिम संस्कार के लिए गाजे-बाजे के साथ ले जाया जाता है।
यह ज्ञान आज बांटने की जरूरत इसलिए जान पड़ी कि परसों सूबे के अतिरिक्त मुख्य सचिव वीएस सिंह की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी, कल उनका दाह संस्कार किया गया। मौत किसी की भी हो चाहे, सौ की उम्र के बाद में ही हो, उनके परिजनों को शोक करने को बाध्य नहीं किया जा सकता। वीएस सिंह की मौत उनके परिजनों पर ठीक उसी तरह का वज्रपात है जैसे प्रदेश में प्रतिदिन होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों के परिजनों पर होता है। दुःख की इस घड़ी में विनायक उन सब के परिजनों की तरह ही सिंह के परिजनों के प्रति भी सहानुभूति रखता है, इसीलिए पिछले छोटे से अरसे मेंविनायकनेअपनी बातके जरीये एक से अधिक बार इन सड़क दुर्घटनाओं पर विचार किया है।
दो-दिन से सूबे के कई मौजिज लोग और कल हाईकोर्ट के माननीय जज महेशचन्द्र शर्मा ने भी कन्याभ्रूण हत्या के मामले पर सुनवाई करते हुए सड़क दुर्घटनाओं पर सरकार की लापरवाही पर नाराजगी जताई है। आज के अखबारों में यह बड़ी खबर है। इस तरह की नाराजगी पर किसी को कोई एतराज क्यों होगा, होना भी नहीं चाहिए। लेकिन इन विद्वान न्यायाधीश को इस तरह की टिप्पणी करने की याद तब क्यों नहीं आती जब आए दिन इन सड़क दुर्घटनाओं से कई घर-परिवार उजड़ जाते हैं? या एक दुर्घटना में दस-बीस से तीस तक लोग काल के ग्रास में समा जाते हैं और एक साथ कई-कई परिवारों की उम्मीदें मिट्टी में मिल जाती हैं। माननीय न्यायाधीश की यह टिप्पणी कहीं इस आशंका से प्रसूत तो नहीं है कि उनका स्वयं का विशिष्ट वर्ग भी सुरक्षित नहीं है। सुरक्षित जीवन जीने का अधिकार न्यायाधीश महोदय का भी उतना है जितना वीएस सिंह का था और जितना दिन भर हाड़-तौड़ मजदूरी करके शाम को झुग्गी के अपने घर लौटते समय दुर्घटना का शिकार हो जाने वाले का है। रोज होने वाली ऐसी सड़क दुर्घटनाओं के समय माननीय जज को सरकार की लापरवाही क्यों नहीं ध्यान आती! क्या उस मजदूर की जान की कीमत वीएससिंह जैसों की जान की कीमत के आगे के बराबर है! न्यायपालिका में बैठे जज और प्रशासन में बैठे ये अधिकारी सभी की जान की अहमियत को बराबर आंकेंगे तभी वे खुद भी महफूज हो पायेंगे। अन्यथा यह सड़कें, उनके मोड़ और डिवाइडर गैर मानकों से बनते रहेंगे और इन पर वे लोग बेझिझक ड्राइव भी करते रहेंगे जो ड्राइव करने की पूरी योग्यता नहीं रखते हैं।
अदक्ष इंजीनियर सड़कें डिजाइन करते हैं, ठेकेदार कमीशन देकर उनमें और भी कमियां रखने की छूट पा लेते हैं, जिला परिवहन अधिकारी का कार्यालय तय रिश्वत लेकर अपात्रों को ड्राइविंग लाइसेंस जारी कर देते हैं, और पुलिस महकमा कभी दबाव में आकर और कभी लापरवाही में और कभी कुछ लेकर अनियमित ड्राइविंग पर लगाम नहीं लगाते हैं। ऐसा जब तक होता रहेगा तब तक आम के साथ कभी-कभी खास भी इन दुर्घटनाओं की चपेट आते रहेंगे। कभी-कभार न्यायाधीश हड़का देते हैं, यह समाधान नहीं है। अब तो यह प्रशासनिक अमला जजों को ठठेरा और अपने को ठठेरे की बिल्ली मानने लगे हैं। धीरे-धीरे इस तरह की ठक-ठक का असर होना भी बिलकुल बन्द हो जायेगा।
5 दिसम्बर, 2012

1 comment:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

यह बहुत बुरा होगा कि‍ न्‍यायालयों की बात भी न सुनी जाए एक दि‍न (वर्ड वेरि‍फ़ि‍केशन हटा लें तो बेहतर होगा)