कल के सम्पादकीय में ‘गांधी’ फिल्म के जिस दृश्य का जिक्र किया था उसमें एक बात बताने से रह गयी। उस दृश्य में प्रदर्शनकारी न केवल पूरी तरह अहिंसक थे, बल्कि पुलिस के लाठीवार से बचने को भी वे हाथ नहीं उठाते हैं। गांधी के सत्याग्रहों की यह हकीकत और ताकत दोनों थी, इसी सत्याग्रह से उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले वंचितों को उनके हक भी दिलवाए और भारत की आजादी भी हासिल की। लेकिन बाद इसके स्वतंत्र होने के बावजूद हमारा भरोसा अहिंसा से पता नहीं क्यों उठ गया!
आज सुबह-सुबह जब यह समाचार मिला कि हाल ही के दिल्ली के प्रदर्शनों में घायल सिपाही सुभाषचन्द तोमर की मृत्यु हो गई है तो गांधी फिल्म का वही दृश्य फिर याद आ गया।
अपनों को अपने आस-पड़ोस को देखते हैं कि कोई अपनी पूरी उम्र लेकर मृत्यु को प्राप्त होता है तो भी उसके निकटस्थ उस विछोह को सहन नहीं कर पाते हैं। सुभाषचन्द तो पत्नी और तीन बच्चों का परिवार पाल रहा था और इण्डिया गेट पर अपनी ड्यूटी कर रहा था। उसने लाठीचार्ज भी किया तो यह निर्णय भी उसका नहीं था। ऊपर से आदेश मिला तो मानना उसकी आजीविका का हिस्सा था, हिंसक प्रदर्शनकारियों
का वह शिकार हो गया!
हिंसक हुए प्रदर्शनकारियों
को सुभाष के परिजनों की व्यथा से दो-चार होने और यह समझने की जरूरत है कि हिंसा अमानवीय है और किसी हिंसक के खिलाफ भी हिंसा जायज नहीं है। पीड़िता के पिता भी हिंसक न होने की अपील लगातार कर रहे हैं। दिल्ली के शासक-प्रशासक और केन्द्र की सरकार तो इस मुद्दे पर अपना माजना दे चुके हैं।
25 दिसम्बर, 2012
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