रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ में दक्षिण अफ्रीका का एक दृश्य है। तब मोहनदास ‘गांधी’ बनने की प्रक्रिया में थे। अंग्रेजों के अमानवीय कानूनों के खिलाफ कुछ प्रदर्शनकारी बारी-बारी से आगे बढ़ते हैं, पुलिस उन्हें लाठियों से घायल करती है। अन्य आंदोलनकारी घायलों को तुरन्त उठाते हैं और पास ही लगे तम्बुओं में ले जाकर उनकी मरहम-पट्टी, दवा-दारू करते हैं। सत्याग्रहियों का एक और जत्था लट्ठ खाने को आगे बढ़ता है। पर्दे पर इस सिलसिले को इस तरह दिखाया गया कि लगे यह सिलसिला लम्बा चला। इस सत्याग्रह का नेतृत्व और मार्गदर्शन मोहनदास गांधी कर रहे थे।
‘गांधी’ का यह दृश्य आज अचानक स्मृति के आगे चलायमान हो आया। कल के नहीं उससे पिछले रविवार की रात दिल्ली में एक बस में एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, यह युवती अचानक इस अमानुषिक कृत्य के खिलाफ लड़ाई की प्रतीक बन गई। प्रतीक इसलिए कहा कि इसी दिल्ली में वर्ष 2012 में ही बलात्कार के औसतन दो मामले तो प्रतिदिन दर्ज हैं। पता नहीं बलात्कार हुए तो कितने होंगे। उक्त घटना के छठे दिन इसी शुक्रवार को सैकड़ों युवक-युवतियां, किशोर-किशोरियां बिना किसी नेतृत्व के इण्डिया गेट, राजपथ होते हुए राष्ट्रपति भवन के न केवल मुख्य द्वार तक पहुंच गये बल्कि चाक-चौबन्दी को धता बताकर एक किशोरी तो गेट के अन्दर कुछ दूरी तक दौड़ते हुए चली भी गई। स्वतःस्फूर्त कहे जाने वाले इस प्रदर्शन को संचार की उत्तरआधुनिक
तकनीक ने सहयोग दिया, कहा जा रहा है कि एसएमएस, ईमेल और सोशल साइट्स के जरीये इन युवाओं ने अपने उद्वेलन को न केवल संचारित किया बल्कि योजनाबद्ध तरीके से अंजाम तक भी पहुंचाया। इन शनिवार, रविवार को प्रदर्शनकारी हजारों में हो गये! प्रदर्शनकारी
युवक-युवतियों के उद्वेलन के आगे उनके परिजन भी बेबस देखे गये, पहले तो मना किया होगा, नहीं मानने पर कुछ के माता-पिता युवक-युवतियों के साथ राजपथ पर आ डटे। नेतृत्वहीन हजारों की भीड़ में कुछ अति उत्साही तो कुछ उग्र भी हो सकते हैं, हुए भी। दिल्ली पुलिस ने तो समझदारी नहीं दिखाई लेकिन सत्ता के शीर्ष पर बैठे सोनिया गांधी और मनमोहनसिंह भी स्थिति को शनिवार से लेकर आज तक नहीं भांप पाये। यदि वे इसे पहचानते और किसी विचारविशेष या राजनीतिक पार्टी से न प्रेरित इन प्रदर्शनकारियों
के बीच पहुँच कर आश्वस्त कर देते तो यह गतिरोध करिश्माई ढंग से खत्म हो सकता था। कुयोग यह कि सोनिया राजनीतिक परिवार से जरूर हैं पर राजनीति में दीक्षित न होने के बावजूद उन्होंने शनिवार की देर रात अपने घर के आगे एकत्रित प्रदर्शनकारियों
के बीच पहुंच कर उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की। मनमोहनसिंह भी जमीन से जुड़े नेता नहीं हैं। अच्छे ब्यूरोक्रेट्स रहे, सेवानिवृत्ति के बाद उनकी काबिलीयत की जरूरत समझ कांग्रेस का नेता बना दिया और विकल्पहीनता की स्थिति में प्रधानमंत्री भी बन गये। आठ साल से ज्यादा समय से प्रधानमंत्री हैं, लेकिन इन तीन दिनों में उनकी सीमाएं और राजनीति में जमीनी समझ की कमी से कोफ्त होने लगी है। दिल्ली पुलिस दिल्ली की सरकार के अधीन न होकर केन्द्र सरकार के अधीन है, आन्दोलनकारियों
के साथ सख्ती बरतने के कोई निर्देश ऊपर से नहीं भी हैं तो वे इनसे जिस तरह निबट रही है वह दिल्ली पुलिस कमिश्नर की अपरिपक्वता को दर्शा रहा है। यही वजह है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री
शीला दीक्षित के बेटे और जमीनी राजनीति करने वाले नेता संदीप दीक्षित दिल्ली पुलिस के रवैये से कुण्ठित देखे गये।
शुरुआत में ‘गांधी’ फिल्म के दृश्य का जिक्र इसलिए किया था कि गुलाम दक्षिणी अफ्रीका की पुलिस और आजाद भारत की राजधानी की पुलिस में इतना भर अन्तर जरूर देखा गया कि तब मरहम-पट्टी की व्यवस्था आन्दोलनकारियों ने खुद की थी और अभी चल रहे आन्दोलन में घायलों को अस्पताल पहुंचाने की व्यवस्था पुलिस खुद कर रही है। स्वतंत्र और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इतना भर अन्तर ऊंट के मुंह में जीरे से भी कम है, सोनिया गांधी, मनमोहनसिंह और शिन्दे से लेकर दिल्ली पुलिस कमिश्नर को यह समझने की जरूरत है। अन्यथा ऐसा कुछ घटित न हो जाये कि बाद में पछताना पड़े! असामाजिक तत्त्वों के और विपक्षी पार्टियों के हाथों में आन्दोलन के चले जाने के बहाने से दिल्ली पुलिस आज तड़के से ही दमन के बैरिऍर-उपायों को अपना रही है, इससे गुस्सा ठण्डा तो नहीं होगा हो सकता है और सुलगने लगे। आन्दोलनकारियों को भी समझना होगा कि फांसी की सजा पर अड़ना भी एक प्रकार की अमानवीयता ही है!
24 दिसम्बर, 2012
No comments:
Post a Comment