Tuesday, December 18, 2012

आरक्षण के मुद्दे पर कब होंगे गम्भीर!


पिछली सदी के आखिरी दशक की शुरुआत से आरक्षण के मुद्दे पर चर्चा, बहस, विरोध और राजनीति कभी नरम तो कभी गरम होती आयी है और अभी यह लम्बे समय तक चलेगी भी। एक अरसे से अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए पदोन्नति में आरक्षण को सरकारों द्वारा लागू करने और कोर्ट द्वारा रोक देने के साथ कशमकश और ऊहापोह जारी थी। यह मुद्दा जब से गर्म हुआ तब से ही तय था कि मौका मिलते ही संसद में इस सम्बन्ध में विधेयक लाया जाकर कोर्ट की इन बाधाओं को दूर कर दिया जायेगा। कल इसकी शुरुआत हो गई है, इससे सम्बन्धित विधेयक को राज्यसभा द्वारा लगभग निर्विरोध पारित कर दिया गया, और लोकसभा भी लगभग इसी तर्ज पर जल्दी ही इसे पारित कर देगी। समाजवादी पार्टी ने रस्मी विरोध जरूर किया लेकिन सभी जानते हैं कि उसका यह विरोध भी समय-परिस्थितियों की मजबूरी भर था, अन्यथा वे विरोध नहीं करते। लोकतान्त्रिक प्रणाली की अजब-गजब स्थितियां या कहें उसकी ताकत को या कह लें कमियों को देखिए कि सवर्ण समाज के जो नेता व्यक्तिगत रूप से या अपने समाज के मंचों पर जिस आरक्षण के खिलाफ मंशा और विचार जाहिर करते हैं, संसद, विधानसभा में उसी आरक्षण के पक्ष में मतदान करते दिखाई देते हैं इन सवर्णनेताओं में एक बड़ा विरोधाभास और भी दिखाई देता है किवे अपने समाज के लिए आरक्षण की रस्मी मांग करने से भी नहीं चूकते।
आजादी के बाद सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू होने के लगभग तीस वर्षों तक आरक्षण का कोई बड़ा और संगठित विरोध नहीं हुआ, ना ही कोई व्यापक बहस या चर्चा भी हुई। राजनेताओं ने कभी इस पर समय नहीं निकाला। सामाजिक ताने-बाने को जानने समझने वाले जरूर इस मुद्दे पर चर्चा कर लेते थे। आरक्षण के क्रियान्वयन में जो कमियां थीं उसे सुधारने की जरूरत महसूस नहीं की गई। इस व्यवस्था को लागू करने के समय ही क्रीमिलेयर को बाहर कर दिया जाता और पिछड़ी जातियों को आरक्षण तब ही दे दिया जाता तो आज पैंसठ वर्ष बाद देश इस मुकाम पर नहीं होता, इससे कुछ बेहतर मुकाम पर ही होता। विश्वनाथ प्रतापसिंह ने आनन-फानन में या कहें अपनी गोटियां सजाए रखने के लिए जिस तरह इसे लागू किया उसके बाद से आरक्षण का मुद्दा कुछ ज्यादा ही गर्मा गया। सवर्ण जातियां जो समर्थ भी हैं, वे उद्वेलित हो गईं और एक अच्छा निर्णय विवादों में घिर गया। उसके बाद राजस्थान में वसुन्धरा राजे ने वोट बटोरने मात्र के लिए अपनी पार्टी के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के रहते जाट समाज को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करवा दिया। तात्कालिक लाभ के ऐसे निर्णयों के दूरगामी बुरे परिणाम होते हैं जिसे भविष्य का समाज भुगतता है। तात्कालिक इसलिए कहा कि वही जाट समाज 2008 के चुनावों में वसुन्धरा से लगभग छिटक कर अशोक गहलोत के साथ चला गया था।
इस तरह कहा जा सकता है कि दूरगामी असर करने वाले मुद्दों और समस्याओं को तात्कालिक या निजी स्वार्थों के वशीभूत होकर नहीं बरतना चाहिए। कुछ राजनीतिक पार्टियां तो आरक्षण विरोध के नाम पर ही बन गईं और उनके नियन्ता इस विरोध के नाम पर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। क्योंकि सवर्णों में से कुण्ठित उन्हें चंदा-चिट्ठा मुहैया करा देते हैं। जबकि भारतीय लोकतंत्र को जानने समझने वाले जानते हैं कि आरक्षण को पूरी तरह से हटाना अगले लम्बे समय तक सम्भव नहीं होगा।
सचमुच कोई कुछ करना भी चाहते हैं तो उन सभी को एक स्वर में मुखर होकर सभी तरह के आरक्षणों के लाभों से क्रीमिलेयर को बाहर करवा देना चाहिए। इससे इस आरक्षण का लाभ केवल सचमुच के जरूरतमंदों को मिलेगा बल्कि असंतोष भी एक हद तक कम होगा और सामाजिक समरसता में बढ़ोतरी होगी।
18 दिसम्बर, 2012

No comments: