खबर है कि चण्डीगढ़ से ‘कॉलेज ऑफ आर्किटेक्चर’ के पन्द्रह छात्र बीकानेर के ऐतिहासिक बाजारों का अध्ययन करने यहां आए हैं। बीकानेर का लोकायन संस्थान उनका स्थानीय सहयोगी है। इस संस्थान ने पिछले एक अरसे से शहर की हवेलियों के संरक्षण के लिए अभियान चल रखा है। कुछ उत्साही नवयुवक इस अभियान से जुड़े हैं।
लोकायन के इस अभियान से पहले शहर की हवेलियों की चर्चा तब होने लगी जब स्थानीय ‘पर्यटन लेखक संघ’ ने हवेलियों पर बात करनी शुरू की और न केवल शहर की एक हजार हवेलियों को सूचीबद्ध किया बल्कि ‘हजार हवेलियों का शहर’ नाम से एक पुस्तक भी प्रकाशित करवा दी। इन दोनों अभियानों से पूर्व शहर की रामपुरिया हवेलियों और तेलीवाड़ा चौक की टावरी के सामने वाली हवेली जैसी इक्का-दुक्का हवेलियों की ही थोड़ी-बहुत चर्चा होती थी।
पर्यटन का बाजार बढ़ने लगा तो बीकानेरियों
को भी लगा कि जैसलमेर की पटवों की हवेलियों की तर्ज पर बीकानेर की कुछ हवेलियों को प्रचारित किया और करवाया जाय ताकि देशी-विदेशी पर्यटक बीकानेर की ओर भी आकर्षित हों। लेकिन जब तक बीकानेरी चेते तब तक तो जैसलमेर की पटवों की हवेलियां और सम के धोरे पर्यटन ब्राण्ड के रूप में स्थापित हो चुके थे!
बीकानेरी कुछ ज्यादा ही उत्साही हो गये और उन्होंने इसे हजार हवेलियों के शहर के रूप में स्थापित करने की ठान ली, बिना यह सोचे कि हर किसी मकान को आप हवेली के रूप में स्थापित नहीं कर सकते। हवेली किसे कहेंगे, लोक में इसके मानक तय हैं, कोई पुराने चलवे अब यदि हैं तो वे इनके बारे में बता सकते हैं। अलावा इसके केवल आपके द्वारा प्रचारित को ही पर्यटक प्रमाण नहीं मानते हैं, पर्यटक प्रमाण मानते हैं उन पर्यटकों के लिखे को जो यहां होकर गये हैं और अपने देशाटन के संस्मरणों में जिसे लिखा है।
बात हवेलियों के संरक्षण की भी कर लेते हैं। वे चाहे यहां हजार हो या दो सौ! क्योंकि लोकायन इन दिनों इन्हें लेकर काफी सक्रिय है।
शहर की सभी हवेलियां किसी न किसी की निजी सम्पत्ति हैं, इनके अधिकांश मालिक दूर-दिसावर में रहते हैं, कुछ तो कभी-कभार और कुछ ऐसे भी हैं जो लम्बे समय से आये ही नहीं। एक वाकया बताता हूं, कोई पन्द्रह साल पहले लगभग अस्सी साल के एक बुजुर्ग जयपुर में मिले। दो-तीन मुलाकातों तक यही समझता रहा कि वे सिन्ध मूल के हैं। फिर एक दिन उन्होंने ही कहा कि वे मूलतः बीकानेर के माहेश्वरी परिवार से हैं और उनके पिता अपनी युवावस्था में कराची चले गये थे, आजादी के समय लौट कर जयपुर आ गये तब से यही हैं। बात का मकसद उन्होंने यह बताया कि उनकी एक हवेली बीकानेर के मोहता चौक में है और उस हवेली के पट्टे-कागजात उनके पास हैं, वे जानना चाहते थे कि यदि वे बीकानेर आएं तो क्या उस हवेली की पहचान हो सकेगी और उसका कब्जा मिल सकेगा? जब उनसे जानना चाहा कि इन पचास वर्षों में कभी बीकानेर आए, तो उन्होंने जवाब न में दिया। यह किस्सा यहां बयान इसलिए किया कि यहां की कई हवेलियों की स्थिति ऐसी ही है। ऐसे में जो कुछ हवेलियां हैं भी तो उन्हें सम्हाले कौन? कुछ को यहां के बाशिन्दों ने खरीद लिया तो कुछ ने कब्जाली, कुछ उन्हें बेचकर इस शहर से मुक्त हो गये या होना चाहते हैं। इन सब की अपनी-अपनी जरूरते हैं, कुछ की मजबूरियां भी। कुछ ऐसे भी हैं कि वे इनकी सार-सम्हाल की स्थिति में ही नहीं हैं। ऐसे में कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि ये सभी हवेलियां संरक्षित रह जायें! हां, एक तरीका हो सकता है कि इन हवेलियों को कोई व्यक्ति, संस्था या सरकार खरीद ले और इनकी सार-सम्हाल करे, तभी इनका संरक्षण संभव है। अन्यथा किसी की निजी सम्पत्ति को ज्यों की त्यों रखवाने की समझाइश और दबाव किसी का भी कितना काम करेगा, कहना मुश्किल है।
पर्यटन लेखक संघ और लोकायन को विरासत संरक्षण का कोई काम भी करना है तो सार्वजनिक सम्पत्ति के इन परकोटों का करना चाहिए। जिसके लिए नियम-कायदे भी बने हुए हैं और बजट भी तय है। इस सबके बावजूद इन परकोटों से न केवल सट कर मकान-दुकानें बनने लगे हैं बल्कि कई जगह तो परकोटे के हिस्से इन मकान-दुकानों में गायब ही हो गये हैं।
अब पुराने बाजारों के संरक्षण की बात भी होने लगी है, अगर विरासत केवल संकरी, टेढी-मेढी गलियों को ही मानें तो विरासत कायम रहेगी अन्यथा अधिकांश दुकानों का पुनर्निमाण हो चुका है और जिनका नहीं हुआ उनके पुराने तरीके की मेहराबों के साथ लगे लकड़ी के दरवाजों और पाटियों की जगह लोहे के शटरों ने ले ली है।
10 दिसम्बर, 2012
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