Thursday, November 8, 2012

कुछ बातें ओबामा की जीत के बहाने


बराक हुसैन ओबामा फिर से अमेरिका के राष्ट्रपति चुन लिए गये। वह अपना दूसरा कार्यकाल जनवरी से शुरू करेंगे। बीकानेर में उपलब्ध होने वाले सुबह के अखबारों में राजस्थान पत्रिका और दैनिक भास्कर ने आज उस भाषण के अंश प्रकाशित किये हैं जिसे इस जीत के बाद ओबामा ने दिया है। राजस्थान पत्रिका ने ओबामा के प्रतिद्वंद्वी मिट रोमनी द्वारा पराजय के बाद दिए भाषण के अंश भी प्रकाशित किये हैं। पाठकों से गुजारिश है कि एक बड़े लोकतान्त्रिक देश के नागरिक होने के नाते वे इन दोनों के भाषण अंशों को जरूर पढ़ें। इन दोनों भाषणों के अंशों को पढ़ने में दस से पन्द्रह मिनट का समय ही लगेगा। इन्हें पढ़ने से भाषणों के पीछे से झांकती उन दोनों नेताओं की मानसिकता और मनःस्थिति की जानकारी आपको मिल सकेगी। यद्यपि अमेरिका को आजाद हुए दो सौ साल हो गये हैं यानी भारत की आजादी की उम्र से अमेरिका की उम्र तीन गुणा ज्यादा है-इस बिना पर कह सकते हैं कि उसका लोकतन्त्र परिपक्व होगा। लेकिन क्या किसी नये लोकतान्त्रिक देश की अपरिपक्वताओं को बचकानी हरकत कहकर नजर अंदाज किया जा सकता है?
अमरीकी राष्ट्रपति के इन चुनावों की खबरों को देखते-पढ़ते रहने और आज के इन भाषण अंशों को पढ़ने से लगता है कि भारत और अमेरिका की समस्याएं मोटा-मोट समान-सी ही हैं। ओबामा के भाषण के कुछ अंशों को अलग करके अमेरिका की जगह भारत का नाम लेकर इसे पढ़ा जाए तो लगेगा कि भारत के ही किसी परिपक्व नेता का दिया भाषण है यह।
अपने देश के पिछले दो-एक साल के परिदृश्य को देखें तो यह देश घोटालों से घिरा महसूस होगा-लगेगा राजनेताधनगेलेहो गये। और आत्म-विश्वासहीनता में सबकुछ सोर-समेट लेने की मनःस्थिति में है। देखा-समझा गया है हम अमेरिका को या अमेरिका की नीतियों को या अमेरिका की संस्कृति को भुण्डाते रहते हैं और बिना अमेरिका के हमारा काम भी नहीं चलता है। लेकिन अमेरिका की उन खासियतों पर हम अपनी आंख टिकाना चाहते और अपनी समझ को। एक बात जो अमरीकी नागरिकों से हम सीख सकते हैं वह यह कि वे अपना वोट हम लोगों की तरह बिना देशहित को विचारे नहीं देते हैं। वह वोट देते वक्त केवल इस पर विचार करते हैं कि फिलहाल की राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों में कौन-सी पार्टी और कौन-सा उम्मीदवार देशहित में रहेगा। हम जिस-जिस तरह के तुच्छ प्रलोभनों के लिए अपना वोट देते हैं उनका उल्लेख बार-बार करना भी बेशर्मी में गिना जा सकता है।
अमेरिका में दो ही राजनीतिक पार्टियां हो सकती हैं और दो ही हैं-डेमोक्रेटिक पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी। वहां एक व्यवस्था और भी है कि एक व्यक्ति दो कार्यकालों से ज्यादा राष्ट्रपति नहीं चुना सकता है। और, राष्ट्रपति को जनता चुनती भी लगभग सीधे ही है। खयाल रहे अभी इस पर विचार नहीं कर रहे कि निर्वाचन की यह प्रणाली कितनी उचित है या अनुचित या हमारे देश के लिए यह प्रणाली व्यावहारिक होगी भी कि नहीं।
बात यह कर रहे हैं कि हमारे देश के राजनेता भारत से उस तरह प्यार क्यों नहीं करते हैं जिस तरह अमेरिका में शासन करने की आकांक्षा रखने वाला व्यक्ति करता है। बीकानेर के सन्दर्भ से ही बात करें तो विनायकअपनी बातमें एक से अधिक बार उदाहरणों सहित लगभग आरोप की भाषा में बता चुका है कि इस शहर को ऐसा जनप्रतिनिधि आजादी बाद से आज तक नहीं मिला है जो इस शहर को प्यार करता हो। इसे आप अतिशयोक्ति अलंकार के रूप में लें। शहर को प्यार करने वाले की फितरत होगी कि अवसर आने पर वह अपने प्रदेश से भी प्यार करेगा और बड़ा अवसर मिलने पर वह देश से भी प्यार करेगा और दुनिया से भी।
अमेरिका के स्मरण इतिहास पर नजर डालें तो हमें एक भी राष्ट्रपति धन की व्यक्तिगत गड़बड़ियों में लिप्त नहीं मिलेगा। दूसरे तरह की गड़बड़ियां किसी ने की भी हैं तो उसके नतीजे भुगते हैं। रिचर्ड निक्सन का वाटरगेट (राजनीतिक जासूसी) कांड में दोषी पाया जाना और महाअभियोग की नौबत देख कर इस्तीफा देना, लोकतान्त्रिक देशों के मुखियाओं के सन्दर्भ की बड़ी घटना है और इसी तरह हाल के वर्षों में बिल क्लिटंन द्वारा अपने विवाहेतर सम्बन्धों को लेकर सचमुच की शर्मिंदगी जाहिर करना बड़ा उदाहरण। हमें इन सभी घटनाओं और परिणामों को भारत के सन्दर्भ में देखने और समझने का जतन करना चाहिए कि हमारे नेताओं की, हमारी निर्वाचन प्रणाली की और देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली की परिपक्वता कहां ठहरती है।
एक लोकतान्त्रिक देश के नागरिक अपने पाठकों से और खासकर राजनीति को पेशे के रूप में या कह लें सेवा के रूप में अपना चुकों से यह उम्मीद है कि वे केवल बराक ओबामा का ऊपर उल्लेखित भाषण पढ़ें बल्कि मिट रोमनी के भाषण को भी पढ़ें और अपने देश-प्रदेश, शहर और अपनी राजनीति और उद्देश्यों के सन्दर्भ में मनन करें।
8 नवम्बर, 2012

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