Monday, November 19, 2012

ठाकरे की मृत्यु के बहाने


किसी भले से भले व्यक्ति की मृत्यु पर सभी शोकमग्न हों जरूरी नहीं है लेकिन बुरे से बुरे की मृत्यु पर खुशी जाहिर करना उजड्डता-असभ्यता या बर्बरता कहलाएगा। शनिवार को बाल ठाकरे का निधन हो गया और कल उनका अन्तिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ कर दिया गया, लगभग सभी खबरिया चैनल लपके की मुद्रा में लगभग पूरे समय इस मृत्यु प्रसंग से चिपटे रहे। स्थानीय बोली में कहें तो जैसे इन चैनलों कोराम मिल गया हो अकसर देखा गया है कि यह खबरिया चैनल ऐसे मौकों-टोकों पर आगा सोचते हैं पीछा और पिल पड़ते हैं। लोकतन्त्र है-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। कानून विरुद्ध नहीं हो तो कुछ भी दिखाते रहें, किसी को क्या? जिसको देखना हो, देखे, चैनल बदल लें। ज्यादा से ज्यादा टीवी को बन्द कर दें। मित्र और जनसत्ता के कार्यकारी सम्पादक ओम थानवी ने तैश में आकर टीवी का तार तक निकाल दिया-जिसकी जरूरत नहीं थी। पावर बटन को बन्द कर दें तो बेचारे टी.वी की क्या बिसात! थानवी की यह प्रतिक्रिया खबरिया चैनलों की इस ज्यादती के प्रति खीज ही जाहिर करती है। थानवी ने एक सुकून और जाहिर किया कि कल के शोक प्रसारण दिवस पर उन्हें किसी भी चैनल ने नहीं बुलाया। अन्यथा अकसर वे किसी किसी चैनल पर किसी किसी विषय पर चर्चा करते देखे-सुने जा सकते हैं।
ओम थानवी जैसी स्थिति कइयों की रही होगी। कुछ ऐसे भी होंगे जो इन चैनलों कामाजनादेखने-समझने भर को कुछ-कुछ देर से ही सही बीच-बीच में टीवी देखते-सुनते रहे। एक से अधिक चैनलों की अपने पेशे की प्रति भारी लापरवाही भी देखी गयी। शिवसेना के पार्टी मुख्यालय का नाम शिवसेना भवन है, शवयात्रा वहां से होकर गुजरी थी, कुछ चैनलों ने इसकी सूचनासेना भवननाम से प्रसारित की। सेना भवन भारतीय सेना का मुख्यालय है (यद्यपि सेनाध्यक्ष साउथ ब्लॉक में बैठते हैं) मीडिया की इस लापरवाही का नतीजा यह हुआ किगुगल सर्चपर अब सेना भवन के नाम से सर्च करें तो शिवसेना भवन का जिक्र और चित्र आने लगे हैं। भाषा अपने लिए बरती लापरवाही का क्या नतीजा देती है, यह इसका एक नमूना है। बाकी सबकुछ तो क्षम्य या स्वीकार्य हो सकता है लेकिन अति उत्साह में की गई ऐसी लापरवाहियों को कैसे क्षमा और स्वीकार किया जा सकता है!
यह तो हुई हमपेशे की बात। अब बात बाल ठाकरे की भी कर लेते हैं। वैसे विनायक ने उनकी अस्वस्थता के बहाने पिछले गुरुवार की अपनी बात में उनके व्यक्तित्व का खाका खींचा था। विनायक लोकतन्त्र का सम्मान करता है, लाखों लोग यदि उन बाल ठाकरे पर भरोसा करते हैं या श्रद्धा रखते हैं जो उस हिटलर के प्रशंसक रहे जिस ने राज मिलने पर केवल अपने देश में सभी लोकतान्त्रिक मर्यादाओं को ताक पर रख दिया बल्कि पूरे विश् को दहशत की दहलीज पर भी ला खड़ा कर दिया था। यद्यपि भरोसा और श्रद्धा दोनों ही व्यक्तिगत मामले हैं लेकिन एक लोकतान्त्रिक देश में ठाकरे जैसे लोग इतना सम्मान, श्रद्धा और सुर्खी पा जाते हैं तो यह विचारणीय तो है ही।
बाल ठाकरे मोहम्मद अली जिन्ना की तरह ही धर्मनिरपेक्ष थे। ठाकरे की जातीय, क्षेत्रीय और साम्प्रदायिक संकीर्णता जिन्ना की तरह राजनीतिक रणनीति का हिस्सा भर थी। जिन्ना की तरह ही ठाकरे के जीवन या उनके अन्य कार्यकलापों को देखें तो यह बात स्पष्ट होती है। इस तरह जिन्ना और ठाकरे दोनों का राजनीतिक पेशा भावनात्मक ब्लैकमेलिंग पर आधारित माना जायेगा। इस युग में भी आए दिन आने वाली वे खबरें जिनमें रुपये या सोने को दुगना करने या आधे या चौथाई दामों में वस्तुएं देने के नाम पर भारी ठगियों की सूचनाएं होती है। इस तरह की खबरें जनता के भोलेपन या लालची होने की ही बानगियां हैं। क्या ठाकरे ने भी कुछ ऐसी सी ठगियां ही नहीं की है जनता के साथ। ठाकरे मराठी मूल के नहीं थे-मराठी मानुष के नाम पर ब्लैक मेलिंग करते रहे-की, ठाकरे खुद साम्प्रदायिक नहीं थे-लेकिन राजनीति उन्होंने हिन्दुत्व के नाम पर की। वे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता तानाशाही और फासिज्म के प्रति जाहिर करते थे और सत्ता वे लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से हासिल करना चाहते थे। हालांकि महाराष्ट्र में शिव सेना नेतृत्व में सरकार बनने पर खुद उन्होंने पद नहीं लिया-लेकिन उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि मनोहर जोशी की सरकार रिमोट कन्ट्रोल से वे खुद चलाते हैं और अवसर मिला तो प्रधानमंत्री वे ही बनेंगे। तो क्या अपने पूरे राजनीतिक जीवन में ठाकरे अपने कार्यकर्ताओं, अपने समर्थकों और अपने भक्तों को बेवकूफ ही नहीं बनाते रहे!
हां, वे अच्छे व्यंग्यकार थे-कार्टूनों में हाथ भी आजमाया और चर्चा में भी इसी कारण आए-अच्छे अभिनेता भी थे-अपनी इस खूबी को फिल्मों में तो कभी नहीं आजमाया-आम सभाओं में हमेशा आजमाते रहे।
19 नवम्बर, 2012

1 comment:

maitreyee said...

I totally agree with the fact that instead of talking about national integration, he has always spoke about divide and rule policy...
people also say that he has controlled the riots by suppressing other race and religions...is this the way to bring peace???
I don't understand it....