Friday, November 30, 2012

कलक्टर और जनप्रतिनिधियों के धरम अलग-अलग हैं


लोक में धर्म (या धरम) का एक मतलब ड्यूटी, कर्तव्य या जिम्मेदारी से भी है। देश की विकेन्द्रीकृत लोकतान्त्रिक व्यवस्था इस तरह की बनाई गई है कि वार्ड और पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र तक के जनप्रतिनिधि लोकहित के अपने-अपने जिम्मे आए निगरानी के काम को बखूबी निभा सकते हैं। लेकिन पिछले पैंसठ साल से हो यह रहा है कि पंच-सरपंची हो या वार्ड मेम्बरी, विधायकी हो या सांसदी, सभी ने अपनी जिम्मेदारी को पद मान लिया है और उसे भोगने में लगे हुए हैं।
प्रशासनिक अमले का काम लोकहित के कामों को एग्जीक्यूट या क्रियान्वित करना है। लेकिन उनमें से कई उनकी निगरानी को भी अतिरिक्त जिम्मेदारी मानकर देखते हैं। बीकानेर जिले की कलक्टर आरती डोगरा ने निगरानी के काम की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी ओढ़ रखी है, वे कभी औचक शहरी अस्पतालों में जाती हैं तो कभी गांवों के। कल ही वह कुछ शहरी राशन की दुकानों पर गईं, अनियमितता मिलने पर कार्यवाही की और हिदायतें भी दीं। अब बतायें कि हमारे यह चुने हुए वार्डमेम्बर क्या कर रहे हैं, वे इसे अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं समझते कि उनके वार्ड की सभी सुविधाएं सुचारु हैं कि नहीं? राशन की दुकानवाला कोई गड़बड़ी तो नहीं कर रहा है, वार्ड में लगे सफाई कर्मचारी अपनी ड्यूटी पूरी कर रहे हैं कि नहीं। गली मुहल्ले की नालियां, सड़कें दुरुस्त हैं कि नहीं, नालियों और सड़कों का निर्माण हो रहा है तो तय मानकों के अनुसार हो रहा है कि नहीं, सभी गलियॉं और सड़कें रात को रोशन रहती हैं की नहीं। रोड लाइटें समय पर जलाई और बुझाई जाती हैं कि नहीं, उनके वार्ड में थानों के और होमगार्डों के तय गश्ती दल पूरी जिम्मेदारी से मुस्तैद हैं कि नहीं। आदि-आदि निगरानियों को वार्डमेम्बर अपना धरम मान लें तो बहुत-सी समस्याएं रहेंगी ही नहीं। हो यह रहा है कि लगभग सभी जनप्रतिनिधि या तो इन्हीं कामों के ठेकेदार और राशन की दुकानवाले बने बैठे हैं या अपने किसी निकटस्थ को दिलवा रखे हैं।
ऐसे ही विधायक हैं। वे या तो हर मुद्दे पर राजनीति करते हैं या बळ पड़ते जाली-झरोखों में घुसने और निकलने की जुगत में लगे रहते हैं। या अपने यहां थाना-कचहरी लगाए रखने को अपना धरम मानते हैं। अपने शहर के लिए सूबे की सरकार से क्या लेना है इससे उन्हें कोई मतलब नहीं? थाना-कचहरी अपनी जिम्मेदारी पूरी करें तो करें नहीं करें तो करें इनका क्या। कमोबेश सांसद भी इसी तरह की गतिविधियों में लगे रहते हैं।
जिला कलक्टर, संभागीय आयुक्त, एसपी-आईजी आदि-आदि एग्जीक्यूशन या कहें क्रियान्वयन के काम करने और करवाने के पद हैं कि निगरानी के। कहने वाले कह सकते हैं निगरानी भी काम करवाने का एक तरीका हो सकता है, होता है। जिला कलक्टर आरती डोगरा शायद इसीलिए कर रही हैं। ठीक है तो फिर क्रियान्वयन और निगरानी, दोनों इन प्रशासनिक अधिकारियों को सौंप दो। फिर इन जनप्रतिनिधियों पर भारी भरकम रकम खर्च करने की जरूरत ही क्या है। धीरे-धीरे देश प्रशासनिक अमले का गुलाम हो जायेगा? एक हद तक तो ऐसा हो ही गया है!
जनप्रतिनिधियों को अपने धरम को, जिम्मेदारी-कर्तव्यों को समझना और उन पर खरा उतरना होगा। अन्यथा देश और समाज की स्थितियां उस परिवार के जैसी होंगी जिसका मुखिया अपने धरम से, जिम्मेदारी से च्युत होता है....!
30 नवम्बर, 2012

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