Saturday, November 3, 2012

अस्पतालों में कलक्टर-आयुक्त


संभाग का सबसे बड़ा पीबीएम अस्पताल लगातार खबरों की सुर्खियों में रहने लगा है| इस अस्पताल की खुशबू कभी पड़ोसी राज्य पंजाब तक महसूस की जाती थी-पुख्ता इलाज, सार-सम्हाल और साफ-सफाई के लिए| कोई चालिसे साल पहले का बिम्ब ताजा हो आया है| बचपन में मां के इलाज के दौरान कुछ दिन अस्पताल में ही रहा-स्कूल से लौटते ही अस्पताल को| तब इस अस्पताल के दो मुख्य हिस्सों-जनाना अस्पताल और मरदाना अस्पताल कोबिचलीअस्पताल बना कर जोड़ा ही गया था| अस्पताल इतना साफ-सुथरा रहता था कि सामान्य वार्ड के फर्श पर बिना दरी लगाए बैठने में नहीं हिचकता था कोई| यद्यपि तब वार्डों के पीछे के बरामदों में भी पलंग डाल दिये गये थे-यह बरामदे धूप, हवा और मरीजों के टहलने के लिए बनाए गए थे| वार्डों के आगे का गलियारा और शौचालय एकदम साफ-सुथरे होते थे-स्नानघर भी इतने साफ कि बाहर के मरीजों के साथ आए लोग वहीं नहाते थे| सुबह का नाश्ता, दोपहर शाम का खाना जिस ट्रोली में आता था वह ट्रोली और उसे लेकर आने वाला दोनों ही साफ और स्वच्छ होते थे| अब की तरह अस्पताल में आए-गए की हिम्मत नहीं होती थी कि जहां मरजी आए गुटखा-पीक थूक दें-जहां मरजी आए पानी और कचरा गिरा दें| डॉक्टरों का सम्मान था, नर्सिंग कर्मचारी और सहायक अपनी ड्यूटी करने में मुस्तैद देखे जाते थे| डॉक्टरों की थोड़ी-बहुत निजी प्रैक्टिस तब भी थी लेकिन अब की तरह प्रैक्टिस की लालची मानसिकता नहीं थी-अस्पताल के आउटडोर में वरिष्ठ चिकित्सक तक मरीजों को समय बाद तक निबटाते थे|
जब से समाज में लालच बढ़ा तब से ही डॉक्टरों का लालच भी बढ़ा है| इसी के साथ इन अस्पतालों का ढर्रा बिगड़ता गया डॉक्टरों का लालच देख नीचे वाला भी डॉक्टरों को वैसा ही भाव देना लगा-अधिकांश डॉक्टर-नर्सिंग और सहायक मोटी तनख्वाहों के बावजूद बंदरबाट में लग गये-इन्हें पोखने को जिनके पास अतिरिक्त धन है या जिनके पास कोई कोई सत्तारूप है वे सभी अपना-अपना काम निकाल ले जाते हैं| निम्न मध्यवर्ग और गरीब मारा जा रहा है जिनकी तवज्जुह इन सरकारी अस्पतालों में लगभग खत्म हो गई है| इन्हीं सब का असर है कि अस्पताल में आए दिन कलक्टर को जाना पड़ता है तो कभी सम्भागीय आयुक्त को| तब इसकी नौबत शायद ही आती होगी| ऐसा नहीं है कि सभी डॉक्टर-नर्सिंग या सहायक ऐसे हैं| अभी भी कुछ ऐसे मिल जाएंगे जो निष्ठापूर्वक अपनी ड्यूटी करते हैं-लेकिन ऐसों की संख्या दिनों-दिन कम होती जा रही है|
इसी बहाने कभी-कभी यह बात उठती है कि इन बड़े अस्पतालों के अधीक्षक-उपाधीक्षक पदों पर भारतीय और राज्य सेवा के प्रशासनिक अधिकारियों को लगा दिया जाय-ऐसी सलाह को जायज नहीं कहा जा सकता| लेकिन प्रोफेसरों और एसोसिएट प्रोफेसरों को इन पदों पर लगाना भी उचित नहीं लगता| इससे उनको अपनी कक्षाएं लेने में बाधा आती है और यदि वे ऐसी फैकल्टी से हैं जिन्हें आउटडोर भी देखना होता है तो उस सेवा को भी ढंग से नहीं कर पाते|
राज्य सरकार को चाहिए कि हॉस्पिटल प्रशासन की नई सेवा शुरू करे और इन अस्पतालों के अधीक्षक और उपाधीक्षक पद पर उससे चयनितों को ही लगाएं ताकि डॉक्टर आजीवन अपने पेशे के साथ न्याय कर सके और सोलह सौ वर्षों से उनके द्वारा ली जा रही डॉक्टरी प्रतिज्ञा पर भी वे खरे उतरें|
इस सेवा की परीक्षा के लिए वही पात्रता रखेंगे जिन्होंने एमबीबीएस के बादमास्टर्स इन हॉस्पिटल एडमिनिस्ट्रेशनकी डिग्री ले रखी हो-यदि ऐसा होता है तो अकादमिकों और प्रशासनिकों के अहम् टकराने की सम्भावनाएं भी कम रहेंगी और इन अस्पतालों का ढर्रा भी कुछ ठीक होगा| लेकिन कोई चमत्कार घटित हो जायेगा, ऐसी उम्मीदों के आसार फिलहाल नहीं हैं| ऐसी उम्मीदें तभी की जा सकती हैं जब प्रत्येक नागरिक का मन बदलेगा| इसकी गुंजाइश इसलिए नहीं लगती कि अभी तो लगभग सभी समर्थ स्वार्थी से घोर स्वार्थी होने को तत्पर हैं-इस गंतव्य से लौटने की प्रक्रिया जब शुरू होगी तभी कुछ अच्छी उम्मीदें की जा सकेंगी|
3 नवम्बर, 2012

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