अशोक गहलोत ने सन् 1998 के अन्त में जब सूबे की कमान पहली बार सम्हाली तो विपक्ष के प्रमुख नेता भैरोंसिंह शेखावत ने उनके राज को पोपाबाई का राज कह कर उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की थी| शेखावत के इस कथन के कई मतलब निकाले जा सकते हैं| लेकिन मान यही लेते हैं कि तब जब गहलोत के काम को मीडिया सहित देश के विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ सराह रहे थे तो राजनीतिक घाघ होने के बावजूद सामन्ती मानसिकता के शेखावत को गहलोत की प्रकृति प्रदत्त दुर्बलता के अलावा कुछ भी आलोच्य नहीं लगा| अपनी गलती का एहसास शेखावत को सम्भवतः तभी हो गया था| बाद में वे न केवल शालीन हो गये बल्कि खुद अखाड़े से बाहर होकर-वसुन्धरा को उतार दिया|
इसी तरह लोकसभा के पिछले चुनाव में भाजपा ने जब लालकृष्ण आडवाणी को ‘पीएम इन वेटिंग’ के रूप में प्रोजेक्ट किया तो चुनावी नव प्रबन्धकों के कहे-कहे चलने व बोलने के अनुभव से उन्हें पहली बार गुजरना पड़ा| चूंकि आडवाणी ‘पीएम इन वेटिंग’ थे सो उन्हें ‘पीएम इन ऑफिस’ पर ही हमला करना था| चुनावी प्रबन्धकों ने आडवाणी से यहां तक कहलवा दिया थे कि उन्होंने अपने साठ साल के राजनीतिक जीवन में मनमोहन से कमजोर प्रधानमंत्री नहीं देखा| इतना ही नहीं इसी वाक्य को उन्होंने एक से अधिक बार दोहराया| लगने लगा था आडवाणी इस चुनाव को अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर लड़ रहे हैं| चुनावों के बाद फिर से संप्रग की सरकार बनी और वही मनमोहनसिंह पुनः प्रधानमंत्री भी बन गये, तब आडवाणी को एहसास हुआ कि अपने चुनावी नव प्रबन्धकों के कहे क्या कुछ कह दिया! तब उन्होंने अपने कहे को सार्वजनिक रूप से गलत माना भी|
यह बातें अभी इसलिए उल्लेखित बन गईं कि कल मनमोहन के मंत्रिमंडल में व्यापक फेर बदल किया गया है जो न केवल काफी पहले से लम्बित था बल्कि पिछले एक महीने से जब से तृणमूल कांग्रेस सरकार से बाहर हुई तब से अवश्यम्भावी
भी लगने लगा था| अभी की देरी इसलिए हुई कि संप्रग प्रबन्धक इस कोशिश में लगे थे कि सपा-बसपा सरकार में चाहे न सवार हो तो कम से कम एक घटक दल द्रमुक तो अपना पूरा प्रतिनिधित्व
ले ले| ए. राजा और द्रमुक सुप्रीमो करुणानिधि अपनी बेटी कनिमोझी की हुई गत से कुछ ज्यादा ही नाराज हैं| अंततः मनमोहनसिंह ‘एकला चालो रे’ की तर्ज पर विस्तार करने को मजबूर हुए|
मनमोहनसिंह की एक छवि यह बनी या कहें कि बना दी गई कि वह केवल और केवल मिट्टी के माधो हैं| लेकिन ऐसा लगता नहीं है-चूंकि वह मूलतः राजनेता नहीं एक ऐसे निष्ठावान ब्यूरोक्रेट
हैं जो अपने नाम से जुड़े गीता के इस श्लोक ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन|’ का न केवल पूरी तरह अनुसरण करते हैं बल्कि ‘रामचरितमानस’ के एक चरित्र ‘भरत’ का भी अनुसरण करते दीखते हैं जिन्हें तब की परम्परा के अनुसार राज के असल उत्तराधिकारी
के आने तक सभी आलोचनाओं को नजर अन्दाज कर ‘राजा’ न होने के भाव के साथ पूरे राजकाज को अपने द्वारा तय मानकों के अन्तर्गत पूरी जिम्मेदारी के साथ सम्हालना होता है| वह शायद मानते हैं कि नव आर्थिक नीतियों के चलते गठबंधन की सरकार को भ्रष्टाचार से लगभग-तर इस व्यवस्था में इससे बेहतर नहीं चलाया जा सकता|
ठीक इसी तरह अपने प्रदेश में लगभग अल्पमतीय मजबूरियों और पार्टी की अन्दरूनी चुनौतियों के चलते तथा पिछले कार्यकाल में ‘दूध जले’ के अनुभवों से आतंकित अशोक गहलोत अपने तईं बेहतर करने की कोशिश में तो लगते हैं-लेकिन पिछले कार्यकाल में लिए ‘असल आमजन के असल हितों’ में किये फैसलों के बजाय इस कार्यकाल में दिखावे के फैसलों में ज्यादा विश्वास करने लगे हैं| लोक लुभावन फ्लैग-शिप योजनाओं की उन्होंने झड़ी लगा दी है बिना इस पर ध्यान दिये कि इनकी क्रियान्विति
किस स्तर पर हो रही है| गहलोत काम की बजाय दिखावे में तथा चुनावों में प्रभावी धर्म समुदाय या चुनाव परिणामों में फर्क डालने वाले प्रभावी जातीय समुदायों को मैनेज करने को ही प्राथमिकता देने में लगे हैं| इस तरह के प्रबन्ध से भी आने वाले परिणामों के उलटने की आशंका न रहती हो ऐसा नहीं है| वे राज मनमोहनीय निष्ठा के साथ करते और अपने गांधीवादी रुझान के चलते आमजन की पीड़ा को कम करने के कुछ असल उपाय करते तो ज्यादा बेहतर था| इस तरह करना शायद गहलोत के लिए इसलिए सम्भव नहीं है कि राज चले जाने के भय से जिस तरह मनमोहन मुक्त हैं उस तरह गहलोत अपने को मुक्त नहीं पाते होंगे| जबकि मनमोहन वह सब करने को खुले हैं जिन्हें वे सही मानते हैं-यह मुद्दा अलग हो सकता है कि वह सही हैं या गलत|
29
अक्टूबर, 2012
No comments:
Post a Comment