सूचना का अधिकार कानून जब से लागू हुआ है तभी से ही वह कई-कई तरह के सवालों के घेरे में है! सरकारी मुलाजिम इसे काम में बाधक मानते हैं तो इस अधिकार का उपयोग करने वाले हतोत्साही नजर आते हैं-कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने इस कानून को अहं की तुष्टि का जरीया बना लिया है| इस कानून को ब्लैकमेलिंग के जरीए कमाई का धंधा बना लेने वाले भी कम नहीं है-जिस प्रकार कुछ राजनेता और कुछ मीडिया वाले अपने-अपने रंग के हिसाब से रंगदारी उगाहते हैं उसी तरह इन आरटीआई एक्टीविस्टों की एक जमात भी रंगदारी उगाहने लगी है| रंगदारी देता वही है जो खुद खोटे करता है|
अब अपने प्रधानमंत्री इस पर चिन्ता जाहिर कर रहे हैं कि इससे निजता का हनन हो रहा है| कानून में अगर ऐसी कोई ढिलाई है कि कुछ विशेष प्रकार की सूचनाएं देने से किसी व्यक्ति विशेष की निजता का हनन हो रहा है तो कानून को कसना जरूरी है| लेकिन क्या यह तय करना इतना आसान होगा कि किस तरह की सूचना से निजता का हनन हो रहा है और कैसे हो रहा है?
मनमोहनसिंह ने एक बात और कही है कि कुछ सूचनाएं मात्र अनियमितताएं या गलतियां ढ़ूंढ़ने के लिए ही मांगी जाती हैं| उनका कहना है कि यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है| सिंह की यह बात समझ से परे है कि ऐसा करना ठीक क्यों नहीं है| यदि किसी को लगता है कि किसी काम में अनियमितता हुई है तो इसकी पुष्टि करने का हक उसे क्यों नहीं है!!
पहली बात तो यह है कि देश की लगभग आधी से ज्यादा आबादी अपने को इस स्थिति में पाती ही नहीं है कि उनका साबका कभी किसी सरकारी दफ्तर से पड़े| शेष आधे से भी कम में अधिकांश ऐसे हैं कि वह जैसी-तैसी भी परिस्थितियां हैं उसमें अपना और अपने घर-परिवार का गुजर-बसर बिना किसी हीलहुज्जत के करने की जुगत में रहते हैं या स्थानीय भाषा में बात करें तो ‘पल्ला-बचा कर’ चलने में विश्वास रखते हैं|
देश की आम आवाम की मानसिकता लगभग ऐसी ही है, जैसी कि ऊपर बतलाई गई है-इसके बावजूद किसी भी सरकारी दफ्तर के छोटे से छोटे कर्मचारी से लेकर अब अपने प्रधानमंत्री तक भी इस ‘सूचना के अधिकार’ से विचलित दिखाई देते हैं-वह मनमोहनसिंह भी जो ईमानदार कहलाते हैं और पारदर्शी व्यवस्था में विश्वास करते हैं-कितनी अजब बात है|
आज के इस युग में होना तो यह चाहिए था कि देश की रक्षा और कूटनीति से सम्बन्धित कुछेक बातों को छोड़कर सभी सरकारी दफ्तरों का काम-काज ऑनलाइन हो जाना चाहिए ताकि देश का कोई भी व्यक्ति जब चाहे और चाहे जहां किसी भी प्रक्रिया का अवलोकन कर सके-ऐसा संभव करना अब कोई बहुत मुश्किल नहीं है| इस तरह की व्यवस्था से भ्रष्टाचार पर एक हद तक लगाम लग सकती है यदि लगाम लगाने की मंशा सचमुच हो तो-जो लगती कम ही है|
अन्यथा इस देश के सरकारी दफ्तरों में से शायद ही ऐसा कोई दफ्तर हो जो भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त हो| इन राजनेताओं ने सरकारी मुलाजिमों के साथ भ्रष्टाचार की जुगलबंदी जिस तरह से कर ली है उसे पूरी तरह बेताल करना न अन्ना के जनलोकपाल से संभव है और न ही सूचना के अधिकार कानून से!!
13 अक्टूबर, 2012
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