पचास पार की उम्र वालों को याद ही होगा कि उनके बचपन में होने वाले आयोजनों और शादियों में इन टैंटों की भूमिका नगण्य थी| बीकानेर में टैंट हाउसों की गिनती बमुश्किल पांच तक भी नहीं पहुंचती थी|
बड़े-बड़े आयोजन घर-गवाड़ की आपसदारी से, आज से कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से निबट जाते थे| धीरे-धीरे देखा-देखी और दिखावा बढ़ने लगा| आपसदारी कम होने लगी-धंधा धूमधाम पर हावी होने लगा| चौक और गवाड़ की हवेलियों की जगह विवाह-समारोह के लिए बने भवनों ने ली तो आपसदारी से इकट्ठा होने वाले बर्तनों, हलवाई के सामान और बाजोट-पाटों व दरियों को चलन से बाहर इन टैंटों ने कर दिया| पीढ़ियों से हलवाईगिरी करने वालों की जगह कैटरर्स आ गये और गवाड़-मुहल्ले के नौजवानों की जगह विचित्र वेश-भूषा पहने बेरे खड़े दिखाई देते हैं| खान-पान के सीमित पकवानों की जगह पकवानों की लम्बी फेहरिस्त के माइने बढ़ गये| स्वच्छता और शुद्धता अब इन आयोजनों में कितनी बची है यह किसी से छिपी नहीं है|
इन विवाह-समारोहों की एक-एक मद में इतना खर्च होने लगा है कि किसी जरूरतमंद परिवार की बेटी का पूरा विवाह ही निबट सकता है| अपनी कमीज को दूसरे की कमीज से सफेद दिखाने की इस प्रतियोगिता में कमीज और तमीज भी बचेगी कि नहीं इस पर विचार करना जरूरी है-हां, यह तो भूल ही रहे हैं कि प्रतिस्पर्धा में विचार पीछे छूट जाता है|
उक्त सब के पक्षकार यह कह सकते हैं कि इस चकाचौंध से रोजगार बढ़ा है-तब फायदे के इस तलपट पर इस लेखे भी विचार किया जाना चाहिए कि समाज इन फायदों की कीमत क्या चुका रहा है-पारिवारिक समरसता में कमी और सामाजिक ताने-बाने के बिखरने के चलते कुछ मानवीयता बचा भी पाएंगे क्या हम?
8 अक्टूबर, 2012
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